________________
गुजरातके दिगम्बर जैन तीर्थ
१५७ तो उसने प्रदेशको सुरक्षाका भार अपने सुयोग्य पुत्र चक्रपालितको सौंप दिया। एक बार उसके राज्यकालमें जोरोंकी वर्षा हुई। इससे रैवतकगिरिसे निकलनेवाली पलाशिनी और सिक्ता नदियोंमें भयंकर बाढ़ आ गयी। उससे सुदर्शन झीलमें जगह-जगह दरार पड़ गयी, तट-बन्ध टूट गये। उसके कारण प्रलय-जैसी बाढ़ आ गयी। तब चक्रपालितने गुप्त सं. १३७ में झीलका जीर्णोद्धार किया। इससे सम्बन्धित एक शिलालेख गिरनारपर मिला है। इसमें ३९ श्लोक हैं। जीर्णोद्धारका कार्य ग्रीष्म ऋतुके प्रथम पक्षमें प्रथम दिन प्रारम्भ किया गया और दो माहमें पूर्ण हो गया। इसका सम्बन्धित अंश इस प्रकार है
"ग्रेष्मस्य मासस्य तु पूर्वपक्षे...प्रथमेऽह्नि सम्यक् । मासद्वयेनादरवान्स भूत्वा धनस्य कृत्वा व्ययमप्रमेयम् ॥३५।। आयामतो हस्तशतं समग्रं विस्तारतः षष्टिरथापि चाष्टौ । उत्सेधतोऽन्यत्पुरुषाणि सप्त...हस्तशतद्वयस्य ॥३६।। बबन्ध यत्नान्महतो नदेवानभ्यर्च्य सम्यग्घटितोपलेन ।
अजातिदुष्टं प्रथितं तटाकं सुदर्शनं शाश्वत्कल्पकालम् ॥३७॥"
महाक्षत्रप रुद्रदामन्के एक अन्य शिलालेखका उल्लेख मि. बर्गेसने अपनी रिपोर्ट में इस प्रकार किया है
..........वत... .... ...ण...राज्ञो महाक्षत्रपस्य सुगृहीतनाम्नः स्वामिचष्टनस्य पौत्रस्य राज्ञः क्षत्रपस्य स्वामिजयदाम्नः पुत्रस्य राज्ञो महाक्षत्रपस्य गुरुभिरभ्यस्तनाम्नो रुद्रदाम्नो वर्षे ...चैत्रशुक्लपक्षस्य दिवसे पंचमे...गिरिनगरे देवासुरनागयक्षराक्षसेन्द्रि ... ... ... .... .... ......... .... ............. प्रक (?) मित्र प...........केवलिज्ञानप्राप्तानां जितजरामरणानां....................।
इस लेखके विषयमें मि. बेर्गेसने लिखा है-"इस लेखमें एक शब्द विशेष उल्लेखनीय है केवलिज्ञानसम्प्राप्तानां अर्थात् जिन्होंने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है, जो कि विशेषतः जैन ग्रन्थोंमें प्रयुक्त होता है । अतः यह प्रमाणित होता है कि यह शिलालेख जैनोंका है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि गिरनारको इन गुफाओंका निर्माण साही वंशके राजाओंने सम्भवतः ईसाकी दूसरी शताब्दीके अन्तमें जैनोंके लिए कराया था। सम्भव है, गुफाएं इससे भी प्राचीन हों।
जैन मन्दिरोंके मुख्य द्वारपर गिरनार गढ़के शासक रामण्डलीकका बहुत बड़ा पद्यमय शिलालेख है। इसमें रामण्डलीक द्वारा भगवान् नेमिनाथका स्वर्णखचित मन्दिर बनानेका उल्लेख है । वह इस प्रकार है
१. Dr. Burgess, the Report on the antiquities of Kathiawad and Kachha
p. 141. The most interesting point about it, the word 'Kevalijnana Samprapta nam' of those, who have obtained the knowledge of Kevalins, which occurs most frequently Jain Scriptures, and denotes a person, who is possessed of the Kevalijnana or true knowledge, which produces final emancipation. If would, therefore, seem that the inscription is of jainas, from this it would appear that these caves were probably excavated for the jainas by the Sahi Kings of Saurastra about the end of the second Century of the Christian era. They may however, be much older, -ibid, p. 143.