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________________ १५६ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ हो गया। फिर उसने प्रज्ञप्ति विद्याका साधन किया। उसकी सहायतासे उसे ज्ञात हुआ कि मनोहरी मरकर उसके ही नगरमें मेघमाली विद्याधरकी विरलवेगा नामक पुत्री बनी है। राजा चण्डवेगको यह ज्ञात हुआ तो उसने दोनोंका विवाह कर दिया। गिरनारके शिलालेख यहां कुछ ऐसे शिलालेख दिये जा रहे हैं, जिनमें गिरनार ( ऊर्जयन्त, रैवतकगिरि ) की महत्ता, पर्वतसे नेमिनाथका सम्बन्ध अथवा अन्य निर्माण कार्यों का उल्लेख मिलता है । ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यमें इन शिलालेखोंका बड़ा महत्त्व है। नेमिनाथ मन्दिरके दक्षिणकी तरफके प्रवेश-द्वारके प्रांगणमें टूटे हुए खम्भेकी पश्चिम दीवारपर उत्कीर्ण लेख इस प्रकार है "संवत् १५२२ श्री मूलसंघे श्री हर्षकीर्ति पद्मकीर्ति भुवनको ति....' अनुवाद-सं. १५२२, श्री मूलसंघके श्री हर्षकीर्ति, पद्मकोति, भुवनकीर्ति । (यह लेख खण्डित है।) गिरनार पर्वतपर क्षत्रप रुद्रदामन्का शक संवत् ७२ (सन् १५० ) का एक शिलालेख, जिसमें सुदर्शन झीलके निर्माण, जीर्णोद्धार आदिका रोचक विवरण दिया है। लेख काफी विस्तृत है । अतः यहाँ उसके आवश्यक अंश दिये जा रहे हैं "सिद्धम् ! इदं तडाकं सुदर्शनं गिरिनगरादपि....मृत्तिकोपलविस्तारायामोच्छय निःसन्धिवद्धदृढसर्वपालीकत्वा, पर्वतपादप्रतिस्पर्धिसुश्लिष्टबन्धं....मवजातेनाकृत्रिमेण सेतुबन्धेनोपपन्नं सुप्रतिविहितप्रणालीपरीवाहमीढविधानं च त्रिस्कन्धं...नादिभिरनुग्रहैमहत्युपचये वर्तते । तदिदं राज्ञो महाक्षत्रपस्य सुगृहीतनाम्नः स्वामिचष्टनस्य पौत्रस्य राज्ञः क्षत्रपस्य जयदाम्नः पुत्रस्य राज्ञो महाक्षत्रपस्य गुरुभिरभ्यस्तनाम्नो रुद्रदाम्नो वर्ष द्विसप्ततितमे मार्गशीर्षबहलप्रतिपदायां सुष्टवृष्टिना पर्जन्येनैकार्णवभूतायामिव पृथिव्यां कृतायां गिरेरुर्जयतः सुवर्णसिकतापलाशिनीप्रभृतीनां नदीनामतिमात्रोद्धृतेर्वेगेः सेतुम.. नदीतलादुद्घाटितमासीत् ।........ __मौर्यस्य राज्ञः चन्द्रगुप्तस्य राष्ट्रियेण वैश्येन पुष्यगुप्तेन कारितमशोकस्य मौर्यस्य कृते यवनराजेन तुषास्फेनाधिष्ठाय प्रणालीभिरलंकृतम्.......महाक्षत्रपेण रुद्रदाम्ना वर्षसहस्राय गोब्राह्म...थं धर्मकीर्तिवृद्धयर्थं चापीडयित्वा करविष्टिप्रणयक्रियाभिः पौरजानपदं जनं स्वस्मात् कोशान्महता धनौघेनानतिमहता च कालेन त्रिगुणदृढतरविस्तारायाम सेतुं विधाय सर्वतटे...सुदर्शनतरं कारितमिति...२ भावार्थ-गिरिनगरको सुदर्शन झीलका सेतु महाक्षत्रप चष्टनके पौत्र और क्षत्रप जयदामाके पुत्र महाक्षत्रप रुद्रदामाके ७२वें वर्षमें मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदाको ऊर्जयन्त गिरिकी सुवर्ण क्ता पलाशिनी आदि नदियोंमें भयंकर बाढ आनेके कारण टूट गया। इस (झील)का निर्माण मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्तके राष्ट्रीय वैश्य पुष्यगुप्तने कराया था। मौर्य सम्राट अशोकके लिए यवनराज तुषास्फने इसमें नालियां निकलवायीं और महाक्षत्रप रुद्रदामाने नागरिकोंपर अतिरिक्त कर लगाये बिना अपने कोषसे बहुत धन लगाकर थोड़े ही समयमें पहलेसे तिगुना बड़ा सेतु बनवाया। गुप्त शासनमें स्कन्धगुप्तके समय सौराष्ट्रका शासक पर्णदत्त था। जब वह वृद्ध हो गया १. जैन शिलालेख संग्रह, भाग ३, पृ. ४९१।। २. Selections from Sanskrit Inscriptions, Part I, by D. B. Diskalkar, Epigraphia Indica, Vol. VIII, P. 47.
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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