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________________ १५५ गुजरातके दिगम्बर जैन तीर्थ नगरसेठ गंगपति था। उसकी स्त्री सिन्धुमती थी जो मिथ्यादृष्टि थी। एक बार मासोपवासी मुनि समाधिगुप्त पारणाके लिए नगरमें पधारे। नगरसेठ अपनी पत्नी सहित राजाके साथ वन-विहारके लिए जा रहा था । नगरसेठने मुनिराजको गोचरी करते हुए देखा तो उसने अपनी पत्नीसे कहाप्रिये ! मुनिराजने चर्याके लिए हमारे गृहमें प्रवेश किया है। तुम जाकर उन्हें पहले आहार दो, फिर वनमें आ जाना। पतिके कहनेसे वह लौट तो गयी, किन्तु वह मुनिपर मन-ही-मन बड़ी रुष्ट हुई। वह मुनिको पड़गाहकर भीतर ले गयी। उसने धाय द्वारा मना करनेपर भी आहारमें कड़वी तुम्बी दी। मुनिने उसे समभावसे ग्रहण किया और समाधिमरण करके स्वर्गमें देव बने। राजाने वनसे लौटकर मुनिराजकी मृत्युका समाचार सुना। पूछनेपर ज्ञात हुआ कि सिन्धुमती सेठानीने आहारमें कटु तुम्बी दी थी, जिससे मुनिराजकी मृत्यु हो गयी। सुनकर राजाको बड़ा क्रोध आया। उसके आदेशसे सेठानीका सिर मुंडाकर, गधेपर बिठाकर, काला मुख करके नगरसे निकाल दिया गया। वह पापिनी सात दिन कुष्ठ रोगसे तड़प-तड़पकर मरी और छठे नरकमें उत्पन्न हुई। ____एक अन्य कथा इस प्रकार मिलती है-सौराष्ट्र देशके गिरिनगरमें अतिरथ राजा और गोमिनी नामक रानी थी। उनकी अत्यन्त रूपवती मनोहरी नामक एक कन्या थी। राजाके पुरोहितका नाम विजय था, कुबेरश्री उसकी पत्नी थी। उनके कूबेरकान्त नामक अति सुन्दर पुत्र था। राजाके नगरश्रेष्ठी धनदेव और उसकी सेठानी धनश्रीके श्रीधर नामका पुत्र था। राजपुरोहित और श्रेष्ठी दोनोंके पुत्रोंमें बड़ी मित्रता थी। श्रीधरकी स्त्री कुबेरश्री रत्नकम्बलकी फरमाइश पूरी न होनेपर महलसे कूदकर मर गयो। दोनों मित्र इस घटनाको लेकर शोक-वार्ता कर रहे थे। कुबेरकान्त बोला, "मित्र ! तुम्हारी स्त्रीका समाचार सुनकर मेरी स्त्री भी पर्वतके शिखरसे कूदकर मर गयी।" इसके पश्चात् कुबेरकान्त ऊर्जयन्तगिरिपर अपनी प्रिया मलयाकी तलाशमें गया। वहां उसने राजपुत्री मनोहरोको देखा और दोनोंके मन में प्रेम उत्पन्न हो गया। कुबेरकान्त ऊर्जयन्त गिरिके ऊपर प्रतिदिन जाता और एक विद्याधरसे विद्या सीखा करता। जब मनोहरीका स्वयंवर हुआ तो उसने कुबेरकान्तके गलेमें वरमाला डाल दी। इससे नरेशगण क्षुब्ध हो गये। किन्तु कुबेरकान्तने विद्याके बलसे सभी युद्धलिप्सु राजाओंको जीत लिया और आनन्दपूर्वक मनोहरीके साथ विवाह कर लिया। एक दिन दोनों महलकी छतपर बैठे हुए थे। अकस्मात् दोनोंके ऊपर आकाशसे बिजली गिरी और दोनोंका प्राणान्त हो गया। इस कथाके उत्तर भागमें एक महत्त्वपूर्ण सूचना मिलती है कि उस समय ऊजयन्तगिरिके ऊपर नेमिनाथ निषधिका ( नसिया ) बनी हुई थी। इससे सम्बन्धित अंश इस प्रकार है-- विजयाध पर्वतको दक्षिण श्रेणीमें अलंकारपुर नामक नगर था। वहाँका नरेश चण्डवेग और रानी तडित्प्रभा थी। कुबेरकान्तका जीव इनके यहाँ विद्युन्माली पुत्र के रूपमें उत्पन्न हुआ। तथा मनोहरी मरकर इसी नगरमें मेघमालीकी पुत्री हुई। एक दिन राजा चण्डवेग अपनी पत्नी और पुत्रके साथ ऊजंयन्तगिरिपर नेमिनाथ निषधिकोंकी वन्दना करने जा रहा था । ऊर्जयन्तगिरिको देखकर विद्युन्मालीको पूर्वजन्मका स्मरण हो आया। वह मनोहरीका स्मरण करके मूर्छित १. हरिषेण कथाकोष, कथा ५७, पृ. १०७ । २. अन्यदा चण्डवेगेन विद्युन्मालीतडित्प्रभः । ऊर्जयन्तगिरि यातो नन्तुं नेमिनिषद्यकाम् ।।-हरिषेण कथाकोष, कथा १२७, पृ. ३१२
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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