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________________ १५४ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ हो जायेगा। उस समय महिमानगरीमें मुनि-सम्मेलन हो रहा था। उन्होंने मुनि-सम्मेलनको एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अपनी चिन्ता व्यक्त की। फलस्वरूप दो मुनि भूतबलि और पुष्पदन्त उनके पास पहुंचे जो व्युत्पन्न और विनयी थे, जो विद्या ग्रहण करने और उसे स्मरण रखनेमें समर्थ थे। धरसेनाचार्यने उनकी परीक्षा ली । एकको अधिकाक्षरी और दूसरेको हीनाक्षरी मन्त्र दिया और षष्ठभक्तोपवासपूर्वक उसे सिद्ध करनेको कहा। जब मन्त्र सिद्ध हुए तो मन्त्रोंको एक अधिष्ठात्री देवी बड़े-बड़े दांतोंवाली और दूसरी कानी प्रगट हुई। उन्हें देखकर चतुर साधकोंने जान लिया कि उनके मन्त्रोंमें कुछ त्रुटि है। उन्होंने विचारपूर्वक उनके अधिक और हीन अक्षरोंको ठीक करके पुनः साधना की, जिससे देवियाँ अपने सौम्य रूपमें प्रगट हुई। उनकी इस कुशलतासे गुरुने जान लिया कि ये सिद्धान्त सिखाने योग्य पात्र हैं। फिर उन्होंने उन्हें क्रमसे सारा सिद्धान्त पढ़ा दिया। यह श्रुताभ्यास आषाढ़ शुक्ला एकादशीको समाप्त हुआ। उसी समय भूतोंने पुष्पोपहारों द्वारा शंख, तूर्य और वादित्रोंकी ध्वनिके साथ एक शिष्यकी पूजा की । इसीसे आचार्यने उनका नाम भूतबलि रखा। दूसरेको दन्त-पंक्ति अस्त-व्यस्त थी। उसे भूतोंने ठीक कर दिया। इससे उनका नाम पुष्पदन्त रखा गया। आचार्यने दोनों शिष्योंको अध्ययन समाप्त होते ही वहाँसे विदा कर दिया। आचार्यने चातुर्मास इतना समीप होते हुए भी उन्हें तत्काल क्यों विदा कर दिया, इसका उत्तर इन्द्रनन्दि कृत 'श्रतावतार' तथा विबुध श्रीधर कृत 'श्रुतावतार' में दिया है कि धरसेनाचार्यको ज्ञात हुआ कि उनकी आयु जल्दी क्षीण होनेवाली है, शिष्योंको दुःख न हो, इस कारण उन्हें विदा कर दिया। गुरुकी आज्ञा अलंघनीय होती है, ऐसा विचार कर वे वहाँसे चल दिये और अंकलेश्वरमें वर्षाकाल बिताया। वर्षायोग समाप्त कर और जिनपालितको ले पुष्पदन्त आचार्य तो वनवासको चले गये और भूतबलि भट्टारक द्रमिल देशको चले गये। तदनन्तर पुष्पदन्त आचार्यने जिनपालितको दीक्षा देकर, बीस प्ररूपणा ( अधिकार ) गर्भित सत्प्ररूपणाके सूत्र बनाकर और जिनपालितको पढ़ाकर उन्हें भूतबलि आचार्य के पास भेजा। भूतबलिने उन्हें अल्पायु जानकर द्रव्यप्रमाणानुगमसे लगाकर आगेकी ग्रन्थ रचना की। धवला टीकामें इसके आगेका वृत्तान्त नहीं दिया। किन्तु अन्य ग्रन्थोंके अनुसार भूतबलि आचार्यने षट्खण्डागमकी रचना पुस्तकारूढ़ करके ज्येष्ठ शुक्ला ५ को चतुर्विध संघके साथ उन पूस्तकोको ज्ञानका उपकरण मान श्रुतज्ञानकी पूजा की, जिससे श्रत पंचमी पर्वकी प्रख्याति हई। फिर भूतबलिने उन षट्खण्डागम पुस्तकोंको जिनपालितके हाथ पुष्पदन्तके पास भेज दिया। पुष्पदन्त उसे देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने भी चातुर्वर्ण्य संघ सहित सिद्धान्त ग्रन्थोंकी पूजा की। - इस प्रकार सिद्धान्त ग्रन्थोंकी विद्या-भूमि गिरनार ही है। पुष्पदन्त और भूतबलिने गिरनारकी सिद्धशिलापर बैठकर, जहाँ भगवान् नेमिनाथको मुक्ति प्राप्त हुई थी, मन्त्रसिद्धि की थी। आचार्य कुन्दकुन्द भी गिरनारको वन्दना करने आये थे। पुराणोंमें इस तीर्थसे सम्बन्धित अनेक घटनाओंका उल्लेख हुआ है। कुछ प्रमुख घटनाएं इस प्रकार हैं-गिरिनगरका राजा भूपाल सम्यग्दृष्टि था। स्वरूपा उसकी रानी थी। उस नगरका १. इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार । २. ज्ञान प्रबोध, पाण्डवपुराण ।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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