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________________ गुजरातके दिगम्बर जैन तीर्थ १५३ बाद उसकी अधिष्ठात्री श्री अम्बिका देवीकी मूर्ति और अन्य देवोंकी मूर्तियां उसके ऊपर बनायो गयीं। कुछ श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें ऐसी भी कथाएँ दी गयी हैं, जिनमें यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है कि अम्बिकाने श्वेताम्बर-दिगम्बरोंके विवादमें श्वेताम्बर पक्षको सत्य और विजयी घोषित किया। रत्नमन्दिर गणि कृत 'उपदेश तरंगिणी' नामक ग्रन्थमें लिखा है-सूराष्ट्र देशके गोमण्डल (गोंडल ) नामक गांवमें धाराक नामक संघपति रहते थे। उनके ७ पुत्र, ७०० योद्धा, १३०० गाड़ियाँ और १३ करोड़ अशर्फियां थीं। शत्रुजयकी यात्रा करके गिरनार तीर्थकी यात्राको गये। इस तीर्थपर ५० वर्षसे दिगम्बरोंका अधिकार था। वहाँ राखंगार नामक किलेदार था, जो दिगम्बर धर्मानुयायी था। संघपतिका किलेदारके साथ युद्ध हो गया। इस युद्ध में संघपतिके सातों पुत्र और सारे योद्धा काम आये । संघपति निराश होकर वापस लौट आये। उन्होंने सुना कि गोपगिरि ( ग्वालियर ) के राजा आम हैं और उन्हें वप्पभट्ट सूरिने प्रतिबोधित किया है । संघपति ग्वालियर आये और उन्हें दिगम्बराधिकृत गिरनार तीर्थकी हालत सुनायी। सुनकर आम राजाको बडा क्षोभ उत्पन्न हआ और उसने प्रतिज्ञा की कि गिरनारके नेमिनाथकी वन्दना किये बिना मैं भोजन ग्रहण नहीं करूंगा। एक हजार श्रावकोंने भी ऐसी ही प्रतिज्ञा की। वह तत्काल संघ सहित गिरनारको चल दिया । खम्भात पहुँचते-पहुंचते उसका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया। तब वप्पभट्ट सूरिने अम्बिकाको बुलाकर अपापमठसे एक प्रतिमा मंगाकर उसे दर्शन कराये।" इसके बाद ग्रन्थमें उल्लेख है कि दिगम्बर जैनोंके साथ श्वेताम्बरोंका शास्त्रार्थ हुआ। शास्त्रार्थ एक माह तक चला किन्तु निर्णय नहीं हो सका। तब अम्बिका देवीने 'उज्जित सेलसिहरे' गाथाएँ पढ़कर श्वेताम्बरोंको विजयी घोषित कर दिया। इस तरह तीर्थ लेकर दिगम्बर-श्वेताम्बरोंकी प्रतिमाओंमें नग्नावस्था और अंचलिकाका भेद कर दिया, जिससे भविष्यमें दोनोंकी प्रतिमाओंकी पृथक्-पृथक् पहचान हो सके। लगता है, यह कथा श्वेताम्बरोंके आग्रहको सत्य सिद्ध करनेके लिए गढी गयी है। इससे एक तथ्यपर अवश्य प्रकाश पड़ता है कि उस समय तक गिरनार पर्वतपर दिगम्बर जैनोंका अधिकार था और दूसरे यह कि उस समय तक दिगम्बर श्वेताम्बरोंको प्रतिमाओंमें कोई भेद नहीं था किन्तु तबसे दोनोंकी प्रतिमाओंमें अन्तर हो गया। पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाएं गिरनारपर अनेक पौराणिक और ऐतिहासिक घटनाएं घटित हुई हैं, जिनका विशेष महत्त्व है । चतुर्थ श्रुतकेवली गोवर्धनाचार्य गिरनारकी यात्राके लिए गये थे। अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुने भी यहांको यात्रा की थी। इनके पश्चात् एक महत्त्वपूर्ण घटनाका गिरनारके साथ सम्बन्ध है, जिसके द्वारा जैन वाङ्मयका इतिहास जुड़ा हुआ है। वह घटना इस प्रकार है "धरसेनाचार्य गिरनारकी चन्द्रगुफामें रहते थे। नन्दिसंघको प्राकृत 'पट्टावली' के अनुसार वे आचारांगके पूर्ण ज्ञाता थे। उन्हें इस बातको चिन्ता हुई कि उनके पश्चात् श्रुतज्ञानका लोप १. कर्जयन्तं गिरि नेमि स्तोतुकामो महातपाः । विहरन् क्वापि संप्राप कोटीनगरमुद्ध्वजम् । -हरिषेण कथाकोष, कथा १३१, पृ. ३७१ २. षड्खण्डागम ( सत्प्ररूपणा खण्ड ) भाग १, पृ. ५७-७१। ३. हरिषेण कथाकोष, कथा २६ । २०
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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