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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
आचार्य दामनन्दीने भी 'पुराणसारसंग्रह' में इस बातका समर्थन करते हुए लिखा है'कुलिशेन सहस्राक्षो लक्षणपंक्ति लिलेख तत्रेशः ।
भव्य हिताय शिलायामद्यापि च शोभते पूता ।।' ५।१३९
इस सूचना के अनुसार वह शिला, जिसमें इन्द्रने वज्रसे भगवान् के चिह्न अंकित किये थे, अब तक मौजूद है ।
आचार्यं जिनसेनने इन्द्र द्वारा ऊर्जयन्तके शिलातलपर वज्रसे चिह्नांकित करनेवाला तथ्य प्रगट किया है, उस रहस्यका उद्घाटन इनसे कई शताब्दी पूर्व ही आचार्यं समन्तभद्र कर चुके थे । उन्होंने ऊर्जयन्त गिरिको प्रशंसा करते हुए 'स्वयंभूस्तोत्र' में बताया है कि
" ककुदं भुवः खचरयोषिदुषित शिखरैरलङ्कृतः ।
मेघपटलपरिवीततटस्तव लक्षणानि लिखितानि वज्रिणा ॥ १२७|| ”
अर्थात्, हे ऊर्जयन्त ! तू इस पृथ्वीतलके मध्यमें ककुदके समान ऊँचा है, विद्याधर- दम्पती तेरे ऊपर रहते हैं, तू शिखरोंसे सुशोभित है, मेघपटल तेरे तट भागको ही छू पाते हैं तथा स्वयं इन्द्र तेरे पवित्र अंगपर वज्रसे नेमिनाथ भगवान् के चिह्न अंकित किये थे ।
गिरनारपर इन्द्र द्वारा स्थापित मूर्ति
इन्द्रने जिस प्रकार भक्तिवश वज्रसे भगवान् के चिह्न अंकित किये थे, उसी प्रकार उसने भक्तिवश गिरनार पर्वत पर भगवान् नेमिनाथकी भव्य मूर्तिकी भी स्थापना की थी । इस आशयकी सूचना यतिपति मदनकीर्तिने 'शासन चतुस्त्रिशिका' में इस प्रकार दी है—
"सौराष्ट्रे यदुवंशभूषण मणेः श्रीनेमिनाथस्य या मूर्तिर्मुक्तिपथोपदेशनपरा शान्तामुधापोहनात् । वस्त्रैराभरणैर्विना गिरिवरे देवेन्द्रसंस्थापिता
चित्तभ्रान्तिमपाकरोतु जगतो दिग्वाससां शासनम् ||२०|| "
अर्थात् सौराष्ट्र में गिरनार पर्वतपर यदुवंशभूषण श्री नेमिनाथ तीर्थंकरको आयुध, वस्त्र और आभरणरहित भव्य, शान्त और मोक्ष मार्गका मूक उपदेश करनेवालो जो मूर्ति स्थित है, वह इन्द्र द्वारा स्थापित की गयी है । वह संसारके चित्तकी भ्रान्तिको दूर करे और दिगम्बर शासनका लोक प्रसार करे ।
इन्द्र द्वारा स्थापित उस मूर्तिका क्या हुआ, इसका कुछ पता नहीं चलता । किन्तु श्वेताम्बराचार्य श्री राजशेखरसूरिकृत 'प्रबन्ध कोष' (वि. सं. १४०५ ) में रत्नश्रावक सम्बन्धी एक प्रबन्ध है । उससे इस मूर्तिके सम्बन्धमें जानकारी प्राप्त होती है । उसमें बताया है कि 'काश्मीर देशके नवहुल्ल पत्तनके निवासी रत्न नामक एक जैन श्रीमन्त संघ सहित गिरनारकी वन्दना के लिए आया । उन्होंने कूष्माण्डी देवी और सात क्षेत्रपतियोंके दर्शन किये। फिर संघ रैवतक पर्वतपर गया । वहाँ भगवान् नेमिनाथकी जो अति प्राचीन मूर्ति थी, रत्नने उसका जलाभिषेक किया। प्रतिमा लेपकी थी, इसलिए वह गल गयी । इससे रत्नको बड़ा परिताप हुआ । उसने उपवास किया। रात्रिमें अम्बिका देवी प्रकट हुई और उसने अन्य प्रतिमा स्थापित करनेका आदेश दिया । तदनुसार रत्नने १८ सोनेकी, १८ चांदीकी और १८ पाषाणकी प्रतिमाएँ बनवायीं । यदि इस विवरणको प्रामाणिक स्वीकार किया जाये तो मदनकीर्ति (वि. सं. १२८५ ) ने नेमिनाथकी जिस भव्य दिगम्बर मूर्तिका उल्लेख किया है वह वि. सं. १४०५ में लिखित 'प्रबन्धकोष' के अनुसार रत्न नामक यात्रीके हाथों नष्ट हुई। इससे लगता है कि मदनकोर्तिके द्वारा
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