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गुजरातके दिगम्बर जैन तीर्थ फलतः उसने मुनिराजके सिरपर अग्नि प्रज्वलित की। उस अग्निसे मुनिराजका शरीर जलने लगा। उसी अवस्थामें वे शुक्ल ध्यानके द्वारा कर्मोंका क्षयकर अन्तकृत केवली हो मुक्तिको प्राप्त हुए। सुर-असुरोंने आकर उनके शरीरकी पूजा की। गजकुमार मुनिका मरण जानकर दुखी होते हुए बहुतसे यादव तथा वसुदेवको छोड़कर समुद्रविजय आदि दशाह मोक्षकी इच्छासे दीक्षित हो गये। शिवा आदि देवियों, देवकी और रोहिणीको छोड़कर वसुदेवकी अन्य स्त्रियों तथा कृष्णकी पुत्रियोंने भी दीक्षा धारण कर लो।'
'हरिवंश पुराण' के इस कथन में गजकुमारके मुक्ति-स्थानका उल्लेख नहीं किया गया । किन्तु हरिषेण कृत बृहत्कथाकोषमें स्थानका स्पष्ट उल्लेख मिलता है जो इस प्रकार है
'अत्रान्तरे कुमारोऽयं नेमिनाथान्तिके मुदा। धर्म श्रुत्वा प्रवव्राज वैराग्याहितमानसः ।।१४।। ततो गजकुमारोऽपि कुर्वाणो विविधं तपः। प्राप रैवतकोद्यानं नानातरुविराजितम् ॥१५॥ पादोपगमनं मृत्युं वांछन्नत्र वने सुधीः । उत्तानशय्यया तस्थौ कुमारो भयवर्जितः ॥१६॥
-हरिषेण कथाकोष, पृ. ३१४ इसमें स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि गजकुमार मुनि रैवतक उद्यानमें पहुँचे और वहीं उन्होंने प्रायोपगमन मरण किया। यद्यपि कथाकोषमें गजकुमारको स्वर्गलोककी प्राप्ति बतायी गयी है, किन्तु इस सम्बन्धमें आचार्य जिनसेनका कथन अधिक प्रामाणिक माना जायेगा। अतः गजकूमारको भी रैवतक (गिरनार) से ही मोक्ष प्राप्त हुआ, यह असंदिग्ध सत्य है।
- इस प्रकार गिरनार पर्वतसे करोड़ों मुनियोंको निर्वाण प्राप्त हुआ। अतः वह निर्वाण क्षेत्र या सिद्धक्षेत्र है। यहां एक बातका उल्लेख करना आवश्यक प्रतीत होता है। प्राकृत निर्वाणकाण्डमें ऊर्जयन्तगिरिसे मुक्ति प्राप्त करनेवाले मुनियोंकी संख्या दी है, जो इस भांति है'बाहत्तरि कोडीओ उज्जते सत्तसया वंदे।' इसके अर्थक सम्बन्धमें विद्वानोंमें मति-विभ्रम है। कुछ विद्वान् इसका अर्थ ७२ करोड ७०० मुनि करते हैं और अन्य विद्वान् ७७२ करोड़ मुनि करते हैं । भैया भगवतीदास कृत निर्वाण-काण्ड ( भाषा ) में इसका अनुवाद इस प्रकार किया गया है-'श्री गिरनार शिखर विख्यात । कोडि बहत्तर अरु सौ सात ॥' किन्तु भट्टारक गुणकीर्ति और चिमणा पण्डितने मराठी तीर्थ वन्दनामें 'सात सौ बाहत्तर कोडि यादवरायसिद्धि पावले' किया है । आचार्य जिनसेन, यतिवृषभ आदि इस सम्बन्धमें मौन हैं। किन्तु समाजमें प्रचलित मान्यता ७२ करोड़ ७०० की है, यद्यपि निर्वाण-काण्डकी गाथाके दोनों ही अर्थ किये जा सकते हैं। इन्द्र द्वारा चिह्नित सिद्धशिला
भगवान् नेमिनाथ जिस स्थानसे मुक्त हुए थे, वह स्थान अत्यन्त पवित्र और लोकपूज्य था। उस स्थानके गौरवको सदा कालके लिए अक्षुण्ण बनाये रखनेके लिए इन्द्रने वज्रसे सिद्धशिलाका निर्माण किया और उसपर भगवान्के चरण-चिह्न उत्कीर्ण किये। इस आशयकी सूचना आचार्य जिनसेनने 'हरिवंशपुराण' ( सर्ग ६५, श्लोक १४ ) में दी है । आप लिखते हैं
"ऊर्जयन्तगिरी वज़ी वज्रेणालिख्य पाविनीम् ।
लोके सिद्धिशिलां चक्रे जिनलक्षणपङ्क्तिभिः ।।" १. हरिवंशपुराण, सर्ग ६१, श्लोक २-१० ।