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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ "ऊज्जत महागिरि सिद्धिपत्तु । सिरि णेमिणाहु जादव पवित्तु । अण्णु वि पुणु सामि पज्जण णवेवि । अणुरुद्धइ सहियर णमवि तेवि ॥३॥ अण्णु वि पुणु सत्तसयाई तित्थु । वहत्तरि कोडिय सिद्धजेत्थु ।"
इसी प्रकार भट्टारक श्रुतसागरने संस्कृतमें', भट्टारक गुणकोतिने मराठीमें, भट्टारक ज्ञानसागरने हिन्दीमें और चिमणा पण्डितने मराठीमें तीर्थवन्दना लिखी हैं। उनमें भी ऊर्जयन्तको सिद्धक्षेत्र माना है। ब्र. नेमिदत्त रचित नेमिपुराण ( अध्याय १६ ) और आचार्य दामनन्दी विरचित 'पुराणसार संग्रह' ( सर्ग ५, श्लोक १३४-१३६ ) में भी यथोक्त वर्णन है। गजकुमार
गजकुमार श्रीकृष्णका अनुज था। वह देवकीसे उत्पन्न हुआ था। एक बार भगवान् नेमिनाथ द्वारकापुरी पधारे । समस्त यादव उनके दर्शनोंके लिए गये। गजकुमारको भगवान्के आगमनका समाचार ज्ञात हुआ तो वह भी समवसरणमें भगवान्के दर्शनार्थ पहुंचा और भगवान्का उपदेश सुनकर उसे वैराग्य हो गया। उसने भगवान्के समीप मुनिदीक्षा धारण कर ली और घोर तप करने लगा।
एक दिन मुनि गजकुमार रात्रिके समय एकान्तमें प्रतिमायोगसे ध्यानमें अवस्थित थे। तभी सोमशर्मा ब्राह्मण संयोगवश उधर आ निकला। सोमशर्माको कन्या सोमाका वरण गजकुमारके लिए किया गया था, किन्तु विवाह होनेसे पूर्व ही गजकुमारने दीक्षा ले लो। अपनी पुत्रीके परित्यागसे सोमशर्मा अत्यन्त खिन्न था। जब उसने गजकुमारको मुनि-वेषमें तप करते हुए देखा तो उसके हृदयमें भयंकर क्रोध उमड़ आया। उसने प्रतिशोध लेनेका कोई क्रूरतम उपाय सोचा ।
१. ऊर्जयन्त-शत्रुजय-लाटदेश-पावागिरि-आभीरदेश-तुंगीगिरि......
तीर्थंकरपंचकल्याणकस्थानानि....( बोधप्राभृत-टीका, गाथा २७ ) २. उज्जंत महासिद्धगिरिपंथु श्रीनेमिश्वरुस्वामि पज्जण्णु अनुरुद्ध मुख्यकरौनि सात सै बाहात्तर कोडि यादवराय सिद्धि पावले । त्या सिद्धासि नमस्कार माझा ।
-तीर्थवन्दना, धर्मामृत, परिच्छेद, १६७ ३. सोरठ देश पवित्र उज्जयंत गिरि नामह
जूनागढ़ ने पास जगमंडन सुभ ठामह । दर्शन थी सुख होय पूजत पाप विनाशे । सेवत शिवपद लहत नवनिधि निकट निवासे । राजिमती राणा तजी नेमिनाथ ध्याने रह्या ।
ब्रह्मज्ञानसागर वदति कर्महणी मोक्षे गया। -सर्वतीर्थवन्दना, ९ ४. उज्जंतगिरी नेमितीर्थकरादि । हरिवंसीराय परिदमनादि ।
सातसै वाहात्तरि कोडी मुनीशा । गिरनारी मुक्तिनमीती सुरेशा ॥-तीर्थवन्दना संघेन विहृत्यान्ते स्मारोहत्यूर्जयन्तगिरिम् ॥१३४॥ आषाढशुक्लपक्षे सप्तम्यां दशधनुः समुत्तुंगः । षट्त्रिंशता यतीनां पञ्चशतेनापि साहस्रम् ॥१३५॥ त्रीण्यपि निरुध्य योगान्त योगितामेत्य पूर्वशर्वाम् । परिनिर्वते जिनेन्द्र विनाश्य कर्माण्यशेषाणि ॥१३६॥
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