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गुजरात दिगम्बर जैन तीर्थ
चेत्तासु सुद्धसट्ठी अवर सावणम्मि णेमीजिणो ।
तदियखवणम्मि हिदि सहकारं वणम्मि तव चरणं ॥ ४६६५
अर्थात् भगवान् नेमिनाथने श्रावण शुक्ला षष्ठीको चित्रा नक्षत्रके रहते सहकार वनमें तृतीय भक्त के साथ तपको ग्रहण किया अर्थात् दीक्षा ली ।
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यह सहकार वन गिरनार पर्वतपर है और वर्तमान में इसे सहस्रा म्रवन कहा जाता है । नेमिनाथने दीक्षा लेकर इसी पर्वतपर तपश्चरण किया और केवल छप्पन दिन पश्चात् ही उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। छप्पन दिन पूर्वं इस गिरिराजके ऊपर देवताओं और मनुष्योंने भगवान् का दीक्षा कल्याणक महोत्सव मनाया था। भगवान्को केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर चारों निकायके असंख्य देव और देवियाँ इन्द्रोंके साथ आये । आकर उन्होंने भगवान्की पूजा की और केवलज्ञान-कल्याणक महोत्सव मनाया। सौधर्मेन्द्रकी आज्ञासे कुबेरने वहाँ समवसरणकी रचना की । भगवान्ने गन्धकुटी में सिंहासनपर विराजमान होकर धर्मचक्र प्रवर्तन किया ।
भगवान नेमिनाथ केवलज्ञानकी प्राप्तिके सम्बन्ध में विशेष ज्ञातव्य तथ्योंपर प्रकाश डालते हुए 'तिलोयपण्णत्ती' शास्त्र में इस प्रकार विवरण दिया है
अस्सउज सुक्क पडिवदपुव्वण्णे उज्जयंतगिरिसिहरे । चित्ते रिक्खे जादं मिस्स य केवलं गाणं ॥ ४६९९
अर्थात् नेमिनाथ भगवान्को आसोज शुक्ला प्रतिपदाके पूर्वाह्न समयमें चित्रा नक्षत्रके रहते ऊर्जयन्त गिरिके शिखरपर केवलज्ञान उत्पन्न हुआ ।
भगवान् नेमिनाथ केवली अवस्थामें कुल ६९९ वर्ष १० मास ४ दिन रहे । उनकी उपदेशसभा ( समवसरण ) में ग्यारह गणधर थे । जब निर्वाण-काल समीप आ गया तो भगवान् पुनः गिरनार पर्वतपर लौट आये। उनके आनेपर पुनः यहाँ समवसरणकी रचना हो गयी । भगवान्का अन्तिम उपदेश इसी पर्वतपर हुआ । जब आयुका एक मास शेष रह गया तो भगवान् योग निरोध कर आत्मध्यानमें लीन हो गये । अन्तमें अवशिष्ट चारों अघातिया कर्मोंको निर्मूल करके उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया । 'तिलोयपण्णत्ती' शास्त्रमें भगवान् के निर्वाणकी तिथि आदिका उल्लेख इस प्रकार उपलब्ध होता है
बहुलट्टमीपदोसे आसाढे जम्मभम्मि उज्जंते ।
छत्तीसाधियपणसयसहिदो णेमीसरी सिद्धो || ४|१२०६
अर्थात् भगवान् नेमीश्वर आषाढ़ कृष्णा अष्टमीके दिन प्रदोषकालमें अपने जन्म नक्षत्रके रहते ५३६ मुनियोंके साथ ऊर्जयन्त गिरिसे सिद्ध हुए ।
भगवान्का निर्वाण होनेपर असंख्य देवों, उनके इन्द्रों और मनुष्योंने निर्वाण - कल्याणक महोत्सव मनाया। तबसे इस पर्वतकी ख्याति एक प्रसिद्ध सिद्धक्षेत्र के रूपमें हो गयी ।
आचार्य जिनसेनने 'हरिवंशपुराण' में भगवान् के निर्वाणका अत्यन्त रोचक वर्णन किया है, उससे कई नवीन तथ्योंका उद्घाटन होता है । अतः उपयोगी समझकर यहां उसका भावार्थ दिया जा रहा है ।
"" समवसरणकी विभूतिसे युक्त नेमि जिनेन्द्र जब दक्षिण दिशामें विहार कर रहे थे, तब वहाँ देश स्वर्गके समान सुशोभित होते थे । जब अन्तिम समय आया, तब निर्वाण कल्याणककी विभूतिको प्राप्त होनेवाले नेमि जिनेन्द्र मनुष्य, सुर और असुरोंसे सेवित अपने-आप गिरनार पर्वत पर आरूढ़ हो गये । वहाँ पहले ही के समान फिरसे कलुषतारहित तियंच, मनुष्य और देवोंके समूहसे युक्त समवसरणकी रचना हो गयी । समवसरणके बीच विराजमान होकर जिनेन्द्र
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