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________________ गुजरातके दिगम्बर जैन तीर्थ १३९ कृष्ण पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। पीठासनपर लेख और लांछन नहीं है। इसके आगे संवत् १९०२ में प्रतिष्ठित चरण विराजमान हैं। उक्त गुफामें-से लौटकर बायीं ओर पाश्वनाथ टोंकको मार्ग जाता है। आगे जानेपर एक छोटी टोंक मिलती है । इस टोंकके मध्य चबूतरेपर एक चैत्य है, जिसमें चारों दिशाओंमें पाश्वनाथ भगवान्की १ फुट ऊँची और संवत् १८६६ में प्रतिष्ठित प्रतिमाएं बनी हुई हैं। ___इसके निकट एक श्वेताम्बर टोंक है। इसमें भी चैत्य बना हुआ है। इस प्रकार कोटिशिलाकी टोंकोंकी वन्दना करके उतरते हैं और धर्मशालाके मुख्य प्रवेश-द्वारसे निकलकर कुण्डपर होते हुए तारंगाके दूसरे पर्वत सिद्धशिलापर चढते हैं। इसकी चढाई कोटिशिलाकी अपेक्षा सरल है। इस पर्वतके लिए कच्चा मार्ग है। पहाड़के ऊपर चढ़नेपर एक छोटी-सी टोंक मिलती है, जिसमें बाहुबली स्वामी की १० इंच ऊँची खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। वेदीके सामने ९ इंच लम्बे श्वेत चरण बने हैं। इनकी प्रतिष्ठा भट्टारक आदिभूषणके शिष्य भट्टारक रामकीतिने करायी। ___इसके पास चार सीढ़ियां चढ़कर एक शिलापर एक छोटी टोंक बनी हुई है । इसमें बाहुबली स्वामीको ११ इंच ऊँची श्वेत पाषाणकी खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९१२ में हुई थी। पहली टोंकके बगलमें एक शिलाके नीचे जमीनपर १ फुट ९ इंच ऊंचा चैत्य रखा हुआ है जिसके चारों ओर ६ इंच ऊंची पद्मासन प्रतिमा बनी हुई हैं । प्रतिमाएं खण्डित हैं । चैत्यके ऊपर कोई लेख नहीं है। __यहाँसे कुछ आगे जानेपर एक टोंक मिलती है। इसमें ४ फुट ९ इंच ऊंची मल्लिनाथकी श्वेतवर्ण खड्गासन प्रतिमा विराजमान है। इसका परिकर कोटि-शिलाके भगवान् नेमिनाथके समान है। भक्त स्त्री-पुरुषमें साधारण-सा अन्तर दृष्टिगोचर होता है। पुरुषके दाढ़ी है। वह कानोंमें कुण्डल, भुजाओंमें भुजबन्द और हाथोंमें दस्तबन्द पहने है। इस मूर्तिका प्रतिष्ठाकाल भी संवत् ११९२ है। अर्थात् नेमिनाथ और मल्लिनाथकी दोनों मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा एक साथ हुई थी। इनके प्रतिष्ठाकारक थे प्राग्वाट कुलके शाह लखन ।। ___ इस मूर्तिके दोनों ओर १ फुट १ इंच अवगाहनावाली खड्गासन तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं। इनके आगे संवत् १९०२ में प्रतिष्ठित चार चरण विराजमान हैं जिनमें २ श्वेत, १ कत्थई और १ सलेटी वर्णके हैं। ____ इस प्रकार कोटिशिला और सिद्धशिला नामक दोनों पर्वतोंपर लगभग ९०० वर्ष प्राचीन प्रतिमाएं विद्यमान हैं। यहाँ जो गुफाएं बनी हुई हैं, वे प्राकृतिक हैं और उनके निर्माण-कालके सम्बन्धमें कोई निश्चित अभिमत प्रकट नहीं किया जा सकता। यद्यपि शास्त्रोंमें तारंगा या तारानगरको निर्वाण क्षेत्र माना है, कोटिशिला और सिद्धशिला भी उसके ही भाग हैं। किसी प्राचीन ग्रन्थमें तारंगा क्षेत्रपर कोटिशिला और सिद्धशिलाका नामोल्लेख नहीं मिलता। इससे प्रतीत होता है कि ये नाम बहुत बादमें प्रचलित हुए हैं, पहले इन दोनों पर्वतोंको तारंगा ही कहा जाता होगा। तलहटीके मन्दिर नीचे दिगम्बर जैन मन्दिरोंको संख्या १३ है तथा १ मानस्तम्भ है। इन मन्दिरोंमें दो मन्दिर विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं-(१) सम्भवनाथ मन्दिर और (२) आदिनाथ मन्दिर । सम्भवनाथ मन्दिर चालुक्य कालका प्रतीत होता है। दिगम्बर मन्दिरोंके निकट बने हुए सम्राट
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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