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________________ १३८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ इन विद्वानोंकी उक्त मान्यताका क्या आधार रहा, यह तो स्पष्ट नहीं हो पाया क्योंकि किसी भी शास्त्रमें इस मान्यताका समर्थन नहीं मिलता। प्राकृत निर्वाण-काण्डमें तो तारानगर ( तारंगा ) और कोटिशिलाके सम्बन्धमें दो पृथक् गाथाएं दी हैं और वे भी एक स्थानमें नहीं। तारापुर सम्बन्धी गाथाको संख्या ४ है, जबकि कोटिशिलासे सम्बन्धित गाथाकी संख्या १८ है। कोटिशिला सम्बन्धी गाथामें तो यह स्पष्ट भी कर दिया है कि कोटिशिला कलिंग देशमें है। इसलिए जिन्होंने भी तारंगा पर्वतके ऊपर कोटिशिला होनेकी कल्पना की है, वह विचारणीय है। हमारी विनम्र सम्मति है कि तारंगापर कोटिशिला नामक पर्वत है। वर्तमानमें एक पहाड़का नाम यहाँ कोटिशिला है । कोटिशिलासे अभिप्रेत वह कोटिशिला नहीं है जिसे नारायण उठाते हैं। नामसाम्यके कारण ऐसा भ्रम होना स्वाभाविक है। इसी प्रकार तारानगर या तारापुरसे तारंगा किस प्रकार हो गया, यह भी अन्वेषणीय है। सम्भव है, तारगांवसे अपभ्रंश होकर तारंगा बन गया हो। क्षेत्र-दर्शन तारंगा पर्वतकी तलहटीमें एक कोट बना हुआ है, जिसके भीतर दिगम्बर जैन धर्मशाला, मन्दिर और क्षेत्रका कार्यालय है। धर्मशालाके पृष्ठ भागमें कोटिशिला पर्वतपर जानेके लिए पक्का मार्ग है । लगभग आधा मील चलना पड़ता है। पहाड़की चढ़ाई प्रारम्भ होनेसे पहले एक तालाब मिलता है। पहाड़पर कुछ ऊपर चढ़नेपर दायीं ओर एक गुफा मिलती है । इस गुफापर श्वेताम्बरोंका अधिकार है । गुफामें एक वेदी बनी हुई है । वेदीमें एक घोड़ा तथा वेदोके इधर-उधर बहुत-से खिलौने रखे हुए हैं । यहाँसे आगे बढ़नेपर एक टोंक मिलती है जिसमें चरण विराजमान हैं। यह भी श्वेताम्बरोंके अधिकारमें है। यहाँसे आगे जानेपर गुफाएँ मिलती हैं। गुफाओंके बीचसे बायीं ओर रास्ता जाता है। तब एक टोंक मिलती है । इसमें एक शिलाफलकमें बनी भगवान् नेमिनाथकी खड्गासन प्रतिमा विराजमान है । प्रतिमा श्वेत वर्णकी है । फलककी अवगाहना ५ फुट है। प्रतिमाके सिरके ऊपर छत्रत्रयी है। इसके दोनों ओर दुन्दुभिवादक तथा गजारूढ़ भेरीवादक हैं। सिरके दोनों ओर पुष्पमाला लिये नभचारी देवयुगल हैं। इनके नीचे शार्दूल बने हुए हैं। भगवान्के चरणोंके दोनों ओर इन्द्र-इन्द्राणीका अंकन है। इन्द्र भगवान्के ऊपर चमर ढोल रहा है तथा इन्द्राणी नृत्य-मुद्रामें खड़ी है । इनसे अधोभागमें सम्भवतः प्रतिष्ठाकारक और उनकी पत्नी करबद्ध मुद्रामें आसीन हैं। पीठासनपर कमलका चिह्न है किन्तु मूर्ति-लेखमें 'श्री नेमिनाथ बिम्बं प्रतिष्ठितं' अंकित है। अतः मूर्ति नेमिनाथ भगवान्की है। लेखके अनुसार इसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् ११९२ वैशाख सुदि ९, रविवारको श्री सिद्धचक्रवर्ती जयसिंहदेवके शासनकालमें हुई थी। जयसिंहदेव चालुक्यवंशी सम्राट् था। उसका विरुद सिद्धराज था तथा उसका इतिहाससम्मत शासन-काल ई. सन् १०९४ से ११४३ है। इसीके दरबारमें प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचन्द्र रहते थे। उपर्युक्त मूर्तिके बायें पार्श्वमें एक शिलाफलकमें बने हुए दो स्तम्भोंके मध्यमें १ फुट ६ इंच उन्नत नेमिनाथ भगवान्की श्वेत पाषाणकी खड्गासन मूर्ति है। मूर्तिके सिरके ऊपर छत्र हैं और उनके ऊपर अभिषेक करते हुए गजोंका अंकन है। इस मूर्तिके आगे भट्टारक सुरेन्द्रकीति द्वारा संवत् १९०२ में प्रतिष्ठित चरण बने हुए हैं। नेमिनाथ भगवान्के दायें पार्श्वमें संवत् १६५४ वैशाख वदी १० को प्रतिष्ठित १ फुट ४ इंच ऊँची कृष्णवर्ण नेमिनाथकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसकी बगलमें ६ इंच उन्नत खड़ी है।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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