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तारंगा
सिद्धक्षेत्र
___ तारंगा एक प्रसिद्ध सिद्धक्षेत्र है । यहाँसे वरदत्त, वरांग, सागरदत्त आदि साढ़े तीन कोटि मुनियोंने निर्वाण प्राप्त किया था। इस नगरके नाम तारानगर, तारापुर, तारागढ़, तारंगा आदि मिलते हैं। इसका प्राचीन नाम तारापुर प्रतीत होता है, तारंगा यह नाम तो १५वीं शताब्दीके
भट्टारक गुणकीतिको मराठी रचना 'तीर्थवंदना में सर्वप्रथम प्रयुक्त हुआ मिलता है। इससे पूर्वकी रचनामें तारंगा नाम कहीं देखने में नहीं आया। 'तारापुर' यह नाम क्यों पड़ा, इसके सम्बन्धमें आचार्य सोमप्रभ कृत 'कुमारपाल प्रतिबोध'में यह कारण दिया गया है कि यहां वच्छराजने बौद्धोंकी तारादेवीका मन्दिर बनवाया था, इसलिए यह स्थान तारापुर कहलाने लगा। किन्तु यह कारण समुचित नहीं लगता। वच्छराजका समय आठवीं शताब्दी माना गया है। जबकि इससे पूर्व भी इस निर्वाण-क्षेत्रका नाम तारानगर था। प्राकृत निर्वाण-काण्ड, जो ईसाको प्रथमद्वितीय शताब्दीकी रचना मानी जाती है, में इसके सम्बन्धमें निम्नलिखित गाथा उपलब्ध होती है
"वरदत्तो य वरंगो सायरदत्तो य तारवरणयरे।
आहुट्ठय कोडीओ णिव्वाण गया णमो तेसि ॥४॥"
इसके पश्चात्कालीन लेखकों-जैसे गुणकीर्ति, श्रुतसागर, मेघराज, दिलसुख आदिने तारंगनगरकी बड़ी प्रसन्नताके साथ चर्चा की है और उसे निर्वाण क्षेत्रका विशेष गौरव प्रदान किया है । भट्टारक ज्ञानसागर, देवेन्द्रकीति और सुमतिसागरने तारंगाके ऊपर कोटिशिला होनेका उल्लेख किया है। ज्ञानसागरने तारंगा क्षेत्रकी वन्दना दो छप्पयोंमें की है। उनमें से एक छप्पय इस प्रकार है
"तारंगो गढ़सार सिद्धक्षेत्र मनुहारह । जिनवर भुवन उतंग वंदत सुख अधिकारह । कोडिशिला अभिराम औठ कोडि मुनि शिवकर । पूजत सुरनरनाथ सेवत किन्नर मुनिवर ।। जे नर मनवचनें करी भावसहित यात्रा करे । ब्रह्मज्ञानसागर वदति ते नर भवसागर तरे ॥१७॥"
इसमें बताया है कि तारंगा गढ़के ऊपर कोटिशिला है, जहाँसे साढ़े तीन कोटि मुनियोंने मुक्ति प्राप्त की थी। उस सिद्धक्षेत्रकी पूजा इन्द्र, नरेन्द्र, मुनि और किन्नर सभी करते हैं।
भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिने भी तारंगाके ऊपर ही कोटिशिला मानी है। वे इस सम्बन्धमें लिखते हैं कि
"गुज्जर देश सुतारंग पर्वत कोडिशिलोपरि कोडि मुनीसा।
कोडी अउट्ठ बली बरदत्त पुरःसर भेदि जवै जब खासा ॥"
भट्टारक सुमतिसागरने भी 'सुतारंग कोडिसिला पवित्र। सुसमरे आतम होय पवित्र ।।' इसी उपर्युक्त मान्यताका समर्थन किया है।