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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ स्वप्नके संकेतानुसार उस स्थानकी खुदाई हुई। फलतः १२-८-५६ को तीन खण्डित जैन प्रतिमाएं मिलीं। इससे लोगोंकी निराशा दूर हुई और आशा बंधी कि अभी अखण्डित प्रतिमाएँ और मिलेंगी। किन्तु चार दिनकी खुदाईका भी कोई परिणाम नहीं निकला। तब लोगोंमें पुनः निराशा छाने लगी। वैद्य बिहारीलाल तिजाराकी धर्मपत्नी सरस्वतीदेवीने प्रतिमाएँ न मिलनेके कारण तीन दिनसे अन्न-जलका त्याग कर रखा था। उस पुण्यशीला महिलाको स्वप्न हुआ और प्रतिमा-प्राप्तिके निश्चित स्थानका संकेत मिला। संकेत प्राप्त होनेपर उस धर्मनिष्ठ महिलाने रात्रिको १ बजे उस संकेतित स्थानपर घी का दीपक जलाकर रखा और प्रातःकाल होनेपर उस स्थानपर रेखा खींच दी। जनतामें उल्लास छा गया। खुदाई जोरोंसे चालू की गयी। फलतः दिनांक १६-८-१९५६ को मध्याह्नमें श्वेत सिर दिखाई दिया। तब आहिस्तासे मिट्टी हटायी गयी, चरण चौकीपर अंकित चन्द्र लांछनसे ज्ञात हुआ कि मूर्ति चन्द्रप्रभु भगवान्को है। मूर्तिलेखके अनुसार इसकी प्रतिष्ठा वि. सं. १५५४ वैसाख सुदी ३ को काष्ठासंघ पुष्करगणके भट्टारक मलयकीर्तिदेवने करायी थी। इस मूर्तिके मिलनेपर सारे नगरमें हर्षोल्लास छा गया और सहस्रों व्यक्ति इसके दर्शनार्थ आने लगे। बड़े समारोह और गाजे-बाजेके साथ भगवान्का अभिषेक और पूजन किया गया तथा टीनका मण्डप बनाकर मूर्तिको एक काष्ठ-सिंहासनपर विराजमान किया गया। पश्चात् मूर्तिके सामने अखण्ड ज्योति जलायी गयी जो आज भी उसी प्रकार जल रही है। इसी प्रकार कीर्तनका जो क्रम उस दिन प्रारम्भ हुआ था, वह भी बराबर चालू है । भगवान् चन्द्रप्रभुके अतिशय ___ जिस दिन भगवान् चन्द्रप्रभुकी मूर्ति प्रकट हुई, उसके दो-चार दिन बाद व्यन्तर-बाधासे पीड़ित एक अजैन महिला स्वयं प्रेरित होकर भगवान्के दरबार में आयी और अपना सिर घुमाना प्रारम्भ कर दिया। उस व्यन्तरने अपना परिचय आदि दिया। २-४ दिन बाद उस व्यन्तरने भगवान्के समक्ष महिलाको छोड़ने और पुनः न आनेकी प्रतिज्ञा की। इसके पश्चात् तो व्यन्तर बाधासे पीड़ित नर-नारियोंकी संख्या बढ़ती ही चली गयी और कई लोगोंको इस बाधासे मुक्ति भी मिली। अब भी ऐसे व्यक्ति आते रहते हैं। __अनेक भक्त अनेक प्रकारको मनोकामनाएं लेकर भगवान्के दरबारमें आते हैं। कोई व्यक्ति अपने या अपने प्रिय जनके रोगसे मुक्तिको कामना लेकर आते हैं, तो कोई मुकदमेमें विजय चाहता है, कोई दम्पती पुत्र-प्राप्तिको कामना मनमें संजोकर आता है आदि। भक्तोंके मनमें भक्तिकी जो अजस्र धारा प्रवाहित होती है, उससे उनके अशुभोदय शुभोदयमें परिणत हो जाते हैं, अर्थात् उनके अशुभकर्मका क्षय हो जाता है और शुभकर्मका उदय हो जाता है, जिससे उनकी कामनाएँ पूरी हो जाती हैं। मन्दिर और धर्मशालाका निर्माण प्रारम्भमें यह विचार था कि नवीन मन्दिरका निर्माण न करके उत्खननमें प्राप्त चन्द्रप्रभुको मूर्तिको श्री पाश्र्वनाथ मन्दिरमें विराजमान कर दिया जाये। किन्तु मूर्तिके अतिशयों और दर्शनाभिलाषी भक्तोंकी बढ़ती हुई भीड़के कारण यह निश्चय करना पड़ा कि भगवान् चन्द्रप्रभुका स्वतन्त्र मन्दिर निर्माण कराया जाये। फलतः मन्दिरके लिए देहरेके आसपासकी १२००० वर्ग गज भूमि सरकारसे खरीदी गयी। फिर मुहूर्त निकलवाकर दिनांक २३ से २५ नवम्बर १९६१ तक
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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