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________________ १३० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ पीठासनपर कोष्ठकोंमें दोनों कोनोंमें यक्ष-यक्षी और मध्यकोष्ठकमें यक्षी बनी हुई है। मध्य कोष्ठकके दोनों ओर गज और सिंह उत्कीर्ण हैं। मध्य-यक्षीके नीचे धर्मचक्र बना हुआ है तथा लेख अंकित है। मूलनायक एक शिलाफलकमें उत्कीर्ण हैं। यह फलक ५ फीट ऊंचा है। मूर्तिके सिरके ऊपर छत्रत्रयी, उसके ऊपर देव-दुन्दुभि, उसके दोनों पार्यों में गजारूढ़ चमरवाहक, उनसे नीचे बायीं ओर पद्मासन जिनेन्द्र प्रतिमा, मालाधारी आकाशचारी देव तथा इनसे नीचे खड्गासन प्रतिमा है। आदिनाथके बगल में दोनों ओर सिंहासनमें पीतलकी ६ इंच ऊंची मति तथा ८ इंचकी एक कृष्ण पाषाणकी मूर्ति विराजमान है । इनके अतिरिक्त दोनों पार्यो में २ फीट ऊँची पद्मासन मूर्तियाँ हैं । पीठासनसे नीचे दोनों ओर २ फीटकी पद्मासन मूर्तियां हैं। __बायीं ओर दीवारमें एक वेदीपर २ फोट ८ इंच और २ फीट ३ इंचकी दो पाषाण मूर्तियां हैं। इसी प्रकार दायीं ओरकी दीवारवेदीमें इसी आकारकी आदिनाथ और महावीरकी मूर्तियां हैं। गर्भगृहके मध्य में एक मेजपर स्थित सिंहासनमें ४ धातु मूर्तियां हैं। गर्भगृहके प्रवेश-द्वारके सिरदलपर अहंन्त प्रतिमा है। प्रवेशद्वारके बायीं ओर चौखटके बगलमें २ फीट ऊंची चन्द्रप्रभकी पद्मासन प्रतिमा है तथा बायों दीवारमें २ फोट १ इंच ऊंची एक श्वेत वर्ण पद्मासन प्रतिमा है। इसी प्रकार दायीं ओर पीतवर्णको १ फुट ८ इंच ऊँची धर्मनाथकी पद्मासन प्रतिमा है और दायीं दीवारमें १ फुट ८ इंचकी आदिनाथकी श्वेत प्रतिमा है। सभी प्रतिमाएं एक ही कालकी हैं। गर्भगृह और सभामण्डपके ऊपर शिखर हैं। मूलनायक प्रतिमा जमीनमें-से उत्खनन द्वारा निकली थी। संवत् १४९४ में ईडरके भट्टारकजीने इसकी पुनः प्रतिष्ठा की थी। मूर्ति सम्भवतः ११-१२वीं शताब्दीकी है । दिलवाड़ाके कलापूर्ण मन्दिर दिगम्बर मन्दिरसे कुछ आगे जानेपर श्वेताम्बर मन्दिरोंका समूह है। सर्वप्रथम विमलवसहि मिलती है। यह प्रसिद्ध जिनालय राजा भीमदेवके मन्त्री विमलशाहने सन् १०३१ में बनवाया था। इसके निर्माणमें १८,५३,००००० रुपये व्यय हुए थे। विमलशाह पोरवाड़ जातिके थे तथा चालुक्य राजा भीमदेव प्रथमके मन्त्री थे। भीमदेव प्रथम नागदेवका पुत्र था और चालुक्यवंशी दुर्लभराजके बाद सन् १०२२ में गद्दीपर बैठा था। सन् १०३१ से कुछ पूर्व उसने परमारवंशी धान्धुकापर आक्रमण करके आबूपर अधिकार कर लिया तथा विमलशाहको वहाँका शासक ( गवर्नर ) नियुक्त कर दिया। विमलशाहने वहाँके मनोरम प्राकृतिक सौन्दर्यको देखकर जिनालय बनवानेका विचार किया। किन्तु उन्होंने जिनालयके लिए जो स्थान पसन्द किया, वह ब्राह्मणोंका था। वे लोग जिनालय निर्माणके लिए जमीन देनेको तैयार नहीं थे। तब विमलशाहने जितनी जमीनकी आवश्यकता थी, उतनी जमीनपर सोनेके सिक्के बिछा दिये और वे सिक्के उन ब्राह्मणोंको देकर जमीन प्राप्त की। - इस मन्दिरमें चारों ओर १२ स्तम्भोंकी तीन पंक्तियोंपर आधारित मण्डल बने हुए हैं, जिनमें ५२ देहरियां बनी हुई हैं। इनमें विभिन्न तीर्थंकरों की मूर्तियां विराजमान हैं । इन मण्डपोंके मध्य प्रांगणमें आदिनाथ मन्दिर बना हुआ है । गर्भगृहमें भगवान् आदिनाथकी मूलनायक प्रतिमा विराजमान है। गर्भगृहके आगे सभामण्डप है। यह २० स्तम्भोंपर आधारित है। मण्डपके ऊपर शिखर है। इसकी छतमें १६ विद्या-देवताओंकी कलापूर्ण मूर्तियां बनी हुई हैं।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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