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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ कलाकी देवी इन पाषाणोंमें अवतरित हई है। ऐसी अनिन्द्य कलाकी समानता विश्वप्रसिद्ध ताजमहल भी नहीं कर सकता। इसलिए अनेक विद्वान् इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि ताजमहलकी कलाकी अपेक्षा दिलवाड़ाके इन जैन मन्दिरोंकी कला कहीं उत्कृष्ट है। किन्तु ताजमहलकी जो इतनी ख्याति प्राप्त हुई है, उसका कारण राजकीय संरक्षण एवं ताजमहलका बाह्य परिवेश है। ये दोनों ही सुविधाएँ दिलवाड़ाके जैन मन्दिरोंको उपलब्ध नहीं हैं। यदि इन मन्दिरोंको ये सुविधाएँ प्राप्त हुई होती तो ताजमहलका स्थान सम्भवतः उस स्थितिमें दूसरा होता।
इन अद्भुत कलागारोंके निर्माता मन्त्री विमलशाह और वस्तुपाल-तेजपाल है। आचार्य जिनप्रभसूरिने अर्बुदाद्रिकल्प ( विविध तीर्थकल्प पृष्ठ १५ ) की रचना की है, जिसमें अवंदाचल क्षेत्रका इतिहास और मन्दिर निर्माणका विवरण दिया है। इसी ग्रन्थमें वस्तुपाल-तेजपाल मन्त्रिकल्प (पृष्ठ ७९ ) नामक एक अन्य कल्प भी दिया है, जिसमें इन दोनों भ्राताओका जीवनपरिचय और उनके द्वारा किये गये धार्मिक और पारमार्थिक कार्योंका ब्यौरा दिया है।
__ श्रीसूरिजी यहाँके प्राकृतिक वैभवका वर्णन करते हुए कहते हैं कि न तो कोई ऐसा वृक्ष है, न ऐसी लता है, न ऐसा कोई पुष्प है, न ऐसा फल है, न कोई ऐसा कन्द है, न कोई ऐसी खान है, जो यहाँ न हो। यहाँ ऐसी महौषधि हैं जो रात्रिमें दीपकके समान चमकती हैं। यहां ऐसे वृक्ष हैं, जिनमें सुगन्धि भी है और रस भी है। यहां मन्दाकिनी नदी बहती है, अनेक निझर और प्रपात हैं।
उन्होंने यहांके मन्दिरोंके निर्माताओंका परिचय इस भांति दिया है
इस महाद्रिके शासक परमारनरेश थे। चन्द्रावती नगरी उनकी राजधानी थी जो धनवैभवसे सम्पन्न थी। उनका दण्डनायक निर्मल बुद्धिवाला विमल था। यहाँ ऋषभदेव चैत्य था, जिसमें धातुको प्रतिमा थी। इन्हीं विमलशाहने विक्रम संवत् १०८८ में करोड़ों रुपये व्यय करके विमल-वसति ( मन्दिर ) का निर्माण कराया। इस मन्दिरको आदिनाथ मन्दिर भी कहते हैं। इस मन्दिरके सामने शिल्पीने एक रात्रिमें ही अत्यन्त सुन्दर पाषाण-अश्व बनाया।
विक्रम संवत् १२८८ में वस्तुपाल-तेजपाल भ्राताओंने यहाँ लूणिग-वसतिका निर्माण कराया। इस वसतिको नेमिनाथ मन्दिर भी कहते हैं।
आक्रमणकारी मुसलमानोंने इन देवायतनोंको भी नहीं छोड़ा। उनके अविवेक और धर्मोन्मादके कारण इन मन्दिरोंको बड़ी क्षति पहुंची। तब शक संवत् १२४३ ( ईसवी सन् १३२१ ) में एक मन्दिरका जीर्णोद्धार महणसिंहके पुत्र लल्लने कराया तथा दूसरे मन्दिरका जीर्णोद्धार चण्डसिंहके पुत्र पीथडने कराया। चौलुक्यवंशी नरेश कुमारपालने महावीर जिनालयका निर्माण कराया।
आचार्य जिनप्रभ सूरिने वस्तुपाल-तेजपालके सम्बन्धमें जो परिचयात्मक विवरण दिया है, वह वस्तुतः उपयोगी है । संक्षेपमें उनका आशय इस प्रकार है
पत्तननिवासी प्राग्वाटवंशी ठक्कुर चण्डपके पौत्र, ठक्कुर चण्डप्रसादके पुत्र चन्द्रवंशी ठक्कुर आसराज और कुमारदेवीके दो पुत्र हुए-वस्तुपाल और तेजपाल । एक बार दोनों भाई शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थोंको यात्राके लिए गये । जब वे हडाला ग्राममें पहुंचे तो उन्होंने अपनी सम्पत्तिका आकलन किया तो तीन लाखको बैठो। उन्होंने एक लाख रुपये भूमिसें गाड़नेका निश्चय करके रात्रिमें एक बड़े पीपलके पेड़के नीचे भूमिको खोदना प्रारम्भ किया। वहां उन्हें स्वर्ण मुद्राओंसे भरा हुआ कलश प्राप्त हुआ। इस धनको अपनी भाभी अनुपमादेवीके परामर्शसे वस्तुपालने शत्रुजय, गिरनार आदि तीर्थों में लगा दिया। यात्राके पश्चात् वे धवलक्ककपुर पहुँचे ।