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राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ
१२३ काष्ठासंघ, नन्दीतटगच्छ, विद्यागण, रामसेनान्वय। किसी मूर्ति-लेखमें लोहाचार्यान्वय भी मिलता है। संवत् १७५३ के शिलालेखमें लाडवागड़ गच्छका और भट्टारक प्रतापकीर्ति आम्नायका भी उल्लेख है।
मूलसंघ बलात्कारगण
ऋषभदेव क्षेत्रको व्यवस्था पहले मूलसंघको बलात्कारगण ईडर शाखाके भट्टारकोंके हाथमें थी। अतः उन्होंने अपनी एक गद्दी इस क्षेत्रमें स्थापित कर ली, जिससे व्यवस्था करने में सुविधा रहे।
बलात्कारगण ईडर शाखाका प्रारम्भ भट्टारक सकलकीर्तिसे हुआ। आप भट्टारक पद्मनन्दिके शिष्य थे। भट्टारक पद्मनन्दिके तीन प्रमुख शिष्यों द्वारा बलात्कारगणकी तीन भट्टारक परम्पराएं प्रारम्भ हुई-शुभचन्द्रने दिल्ली-जयपुर शाखा, सकलकोतिने ईडर शाखा और देवेन्द्रकीर्तिने सूरत शाखा प्रारम्भ की।
शिलालेखोंमें बलात्कारगण ईडर शाखाके जिन भट्टारकोंका उल्लेख आया है, उनका कालपट इस प्रकार है
१. सकलकीर्ति ( संवत् १४५०-१५१०) २. भुवनकीर्ति ( संवत् १५०८-१५२७) ३. ज्ञानभूषण (संवत् १५३४-१५६०) ४. विजयकीर्ति (संवत् १५५७-१५६८) ५. शुभचन्द्र (संवत् १५७३-१६१३) ६. सुमतिकीर्ति (संवत् १६२२-१६२५ ) ७. गुणकीर्ति (संवत् १६३१-१६३९ ) ८. वादिभूषण ( संवत् १६५२-१६५६ ) ९. रामकीर्ति (संवत् १६५७-१६८२ ) १०. पद्मनन्दि (संवत् १६८३-१७०२) ११. देवेन्द्रकीर्ति (संवत् १७१३-१७२५) १२. क्षेमकीर्ति (संवत् १७३४१३. नरेन्द्रकीर्ति ( संवत् १७६२१४. विजयकीर्ति १५. नेमिचन्द्र १६. चन्द्रकीर्ति १७. रामकीर्ति
१८. यशःकीर्ति ( संवत् १८६३- ) उपर्युक्त नामोंके अतिरिक्त भी कुछ नाम मूर्ति-लेखोंमें आये हैं। जैसे प्रेमकीर्ति, सुरेन्द्रकीर्ति । इनका भी काल-निर्धारण होना है। इनमें भट्टारक प्रेमकीर्तिका नामोल्लेख संवत् १७४६ के मूर्तिलेखमें आया है अर्थात् संवत् १७४६ में इन्होंने पाश्वनाथ प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करायी थी। इसी प्रकार सुरेन्द्रकीतिके नामका उल्लेख सकलकोति, पद्मनन्दीके बाद और क्षेमकीर्तिसे पूर्व वि.