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________________ १२२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ गांधी वजैवंधजी अली गुरु आज्ञा-प्रतिपाल । जशलीधो अति उज्वलो जसकीर्ति तणुं प्रताप । भट्टारकजी श्री नयरत्न सूरीस्तोजी साहाजी धर्मचन्दजी, पण्डित किशनजी, पण्डित मोतीचन्दजी रावतजी जोतसिंहजी, भंडारी कुवेरजी हूमड़ ज्ञातीये वृद्धशाखायां गांधी वचन्दजी सुत नवलचन्दजी चिरंजीवत जोशी भागचन्द्रेण लिपिकृतं धुलेवनगरे । श्रीरस्तु । सोरण जोतश्री दौलतरामजी भट कृपाशंकरजी ।। शिलालेख और मूर्ति-लेख : एक अध्ययन ऋषभदेव (केशरियानाथ ) मन्दिरमें जो शिलालेख और मूर्ति-लेख उपलब्ध होते हैं, उनसे अनेक महत्त्वपूर्ण बातोंपर प्रकाश पड़ता है। विशेषतः इतिहासकी दृष्टिसे इनका बहुत महत्त्व है। इन लेखोंसे इस क्षेत्रसे सम्बन्धित भट्टारकों, उनके संघ, आम्नाय, गण, गच्छ, अन्वयके सम्बन्धमें प्रामाणिक जानकारी मिलती है। इनके साथ-साथ इन जिनालयोंके निर्माता तथा मूर्तियोंके प्रतिष्ठाकारकोंके नाम, जाति, गोत्र, निवास तथा इनका निर्माण-काल अथवा प्रतिष्ठा-कालका ज्ञान होता है। इसलिए इन शिलालेखों और मूर्ति लेखोंपर इतिहासके परिप्रेक्ष्य में विचार करना आवश्यक है। यहाँ उपलब्ध शिलालेखोंकी संख्या अधिक नहीं है। कुल मिलाकर ७-८ शिलालेख हैं, किन्तु मूर्ति-लेख ५० से भी अधिक हैं। इन दोनों प्रकारके लेखोंके अध्ययनसे निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं मन्दिर और मूर्तियोंका निर्माण एवं प्रतिष्ठा-- यहाँके मूल मन्दिर अर्थात् केशरियानाथजीके मन्दिरका जीर्णोद्धार, बावन जिनालयों, नौचौकी, सभामण्डप, पार्श्वनाथ जिनालय, एवं मन्दिरके बाहरी कोट और उसके सिंहद्वारका निर्माण काष्ठासंघी दिगम्बर जैन भट्टारकोंके उपदेश अथवा प्रेरणासे दिगम्बर जैन धर्मानुयायियोंने कराया है। जिन भट्टारकोंने इनके निर्माणको प्रेरणा की, उन्होंने ही इनकी प्रतिष्ठा करायी अर्थात् प्रतिष्ठाचार्य और प्रतिष्ठाकारक दोनों ही दिगम्बर जैन थे। मूर्तिलेखोंसे ज्ञात होता है कि इनकी प्रतिष्ठा काष्ठासंघ और मूलसंघ दोनों ही संघोंके भट्टारकोंने करायी थी। कुछ मूर्तियां मूलसंघके भट्टारकोंने प्रतिष्ठित करायी और कुछ मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा काष्ठासंघी भट्टारकोंने करायो। सहस्रकूट चैत्यालयको प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १७४२ में मूलसंघके भट्टारक नेमिचन्द्रजीने करायी। सभी तीर्थकर मूर्तियाँ दिगम्बर जैन आम्नायकी हैं और सभी प्रतिष्ठाकारक विभिन्न जातियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले दिगम्बर जैन धर्मानुयायी हैं। मूल मन्दिरका जीर्णोद्धार वि. सं. १४३१ में भट्टारक धर्मकीर्तिके उपदेशसे हुआ था। भट्टारक संघ यहां सदासे मूल संघ और काष्ठासंघके भट्टारकोंको गद्दी रही है। इन्हीं दोनों संघोंके भट्टारकोंने यहाँ सारा निर्माण और प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न कराया। मूलसंघके भट्टारकोंके गण, गच्छादिके सम्बन्धमें मूर्ति-लेखोंमें इस प्रकार परिचय मिलता है-मूलसंघ कुन्दकुन्दाचार्यान्वय, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण । इनके पश्चात् भट्टारकका नाम आता है। इस प्रकार काष्ठासंघके भट्टारकोंके सम्बन्धमें दोनों प्रकारके लेखोंमें गच्छ-गणादिका विवरण इस प्रकार दिया गया है
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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