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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ निरीह दिगम्बर बन्धुओंपर सिपाहियोंने निर्दयतापूर्वक लाठियां चलायों, परिणामस्वरूप चार दिगम्बर भाई घटनास्थलपर ही मारे गये और ४४ घायल हो गये। मृत व्यक्तियोंके नाम पं. गिरधरलालजी, परशादके दोपचन्दजी नागदा, पूनमचन्दजी, सेमारीके माणिकचन्दजो थे। दिगम्बर-श्वेताम्बरोंके पारस्परिक मतभेदों और संघर्षों के इतिहासमें यह घटना अमिट कलंकके रूपमें सदा स्मरण की जाती रहेगी। जिन स्थानीय श्वेताम्बर-अधिकारियोंने इसमें मदद दी थी, उनके विरुद्ध बादमें कठोर कार्यवाही को गयी।
इस भयानक दुर्घटनाके बाद दिगम्बर और श्वेताम्बर समाजमें मुकदमेबाजी हुई। फलतः उदयपर महाराणाने वैशाख वदी १ संवत १९९० को नं. १०३३८, ५३९, १-९० पो. सन १९३३ के अनुसार ध्वजादण्ड कमीशन नियुक्त किया। कमीशन में चार सदस्य नियक्त किये गये। कमीशनने अपनी रिपोर्ट १०-४-४५ को दी। रिपोर्टको मुख्य-मुख्य बातें निम्नलिखित हैं
१. यद्यपि प्रारम्भसे ही ऋषभदेवजो मन्दिर दिगम्बर जैन मन्दिर है किन्तु फिर भी प्राचीन कालसे ही यह हिन्दुओं, जिनमें भील भी शामिल हैं तथा हर एक फिरकेके जैन लोगों द्वारा पूजा जाता है।
२. दिगम्बरों और श्वेताम्बरोंमें से किसी भी समाजको ध्वजादण्डारोहणकी धार्मिक विधि करनेसे रोका गया हो, यह सिद्ध नहीं हो सका है।
३. कोई भी दल जीर्णोद्धार प्रतिष्ठा या ध्वजादण्डारोहण करना चाहे तो उसे सर्वप्रथम देवस्थान विभागसे आज्ञा प्राप्त करनी होगी।
४. ध्वजारोहण उत्सवके अवसरपर देवस्थान निधि सब सम्प्रदायवालोंको अपनी आम्नायके अनुसार अपने खरचेसे विधि-विधान करनेके लिए निमन्त्रित करे। देवस्थान निधि एक ऑफिसरको, जो समारोहका अध्यक्ष होगा, नियुक्त करेगी।
उक्त फैसलेसे दिगम्बर सम्प्रदायमें बड़ा असन्तोष रहा है। क्षेत्रको वर्तमान व्यवस्था
प्राचीन कालमें मन्दिरका तमाम प्रबन्ध ईडरको मूलसंघी गद्दीके भट्टारकोंके अधिकारमें था। वे स्थानीय कर्मचारियोंके द्वारा कार्य चलाते थे । कहते हैं, स्थनीय कर्मचारियोंने भट्टारकजीको मारकर यहाँका प्रबन्ध हथिया लिया। भट्टारकजीके मारे जानेका स्मारक सूरज कुण्डके पास चन्द्रगिरि नामक पहाड़ीपर बना हुआ है । कुछ समय बाद भट्टारकजीके शिष्योंने पुनः यहाँका प्रबन्ध अपने अधिकार में ले लिया। वे औदीच्य जातिके ब्राह्मण भण्डारियोंकी देखरेखमें काम कराने लगे। वि. सं. १८९० तक मन्दिरका सारा प्रबन्ध भट्टारक चन्द्रकीतिके प्रशिष्य भट्टारक यशकीर्ति तथा उनके शिष्य पं.गौतमजीके अधिकारमें था। इसके बाद काष्ठासंघके भट्टारक और भण्डारी व्यवस्था चलाते रहे। फिर कुछ समय तक अकेले भण्डारियोंने व्यवस्था संभाली। भण्डारियोंकी व्यवस्था ठीक न होने पर डूंगरपुरके महारावलके अधिकारमें व्यवस्था चली गयी। उनसे पुनः भण्डारियोंके हाथोंमें प्रबन्ध व्यवस्था पहुँच गयी। किन्तु संवत् १९३२ से व्यवस्था सन्तोषजनक न होनेके कारण उदयपुर रियासतने व्यवस्था अपने हाथोंमें ले लो और देवस्थान विभाग द्वारा इसका प्रबन्ध होने लगा। उसका ऑफिस उदयपुर रखा गया। रियासतोंके विलय हो जाने और राजस्थान प्रान्तके निर्माणके बाद इसका ऑफिस जैसलमेर चला गया है। इस विभागकी ओरसे व्यवस्था करनेके लिए एक अधिकारी यहाँ रहता है। जिसे पहले दारोगा कहा