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राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ
११७ चतुर्थ पुत्र कोडिया कानजी भार्या कोसमदे इदं समस्त कुटुम्बेन कनक कलश दण्ड ईडो सुवर्णको करापति धुलेव नग्ने श्री ऋषभदेव चैत्यालये शुभम् ।"
यह नकल संवत् १७३० में पौष सुदी ५ को रावल श्री जेतसिंहजीके समयमें भण्डारी रावल वाघजी मेघजी पुजारीने लिखी थी। इसकी कापी संवत् १७३० में भट्टारक विश्वसेनजीने थाणागामके कोठारो अभयराजसे करवायी थी। यह नकल जोर्ण-जोणं दशामें ऋषभदेवमें भट्टारक यशकीर्ति सरस्वती भवनमें विद्यमान है।
इसके पश्चात् संवत् १७९३ में ध्वजादण्ड चढ़ाये जानेका लेख मिलता है जो इस प्रकार है
"संवत् १७९३ महासुदी १ गुरुवारे श्री मूलसंघे सरस्वती गच्छे बलात्कार गणे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक सकलकोति तदाम्नाये भट्टारक विजयकीर्तिजी तत् शिष्य ब्रह्म नारायण उपदेशात् श्री सूरतवास्तव्यः हूंबड़ ज्ञातीय लघु शाखायां संघवी श्री मनोहरदास मनजी सुत किशोरदास दयालदास भगवानदास एते श्री सूरत नगरादागत्य श्री ऋषभदेव कलश तथा ध्वजास्त सोड्यो सं. मनोहरदास स्वपरिक श्रीऋषभदेव नित्यं प्रणमति।"
इस लेखको नकल भी भट्टारक यशकीर्ति सरस्वती भवनमें विद्यमान है। संवत् १८६३ में सागवाड़ा निवासी धनजो करणजाने परकोटा बनवाया। उस समय प्रतिष्ठा हुई और ध्वजादण्ड चढ़ाया गया था।
संवत् १९८४ में सेठ पूनमचन्दजी करमचन्दजी पाटन निवासी ( कोटावाले ) ने पांच हजार रुपया नकद भेंट करके ध्वजादण्ड चढ़ाया। किन्तु यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण रहा । दिगम्बरेतर समाजने इस अवसरपर भयानक उपद्रव किये और चार दिगम्बर जैनोंको हत्या भी कर दी गयी। अनिष्ट समयमें चढ़ाया हुआ यह ध्वजदण्ड गिर पड़ा। क्षेत्रपर भयानक हत्याकाण्ड और ध्वजादण्ड कमीशनका फैसला
ऋषभदेवका सम्पूर्ण मन्दिर, मूलनायक केशरियानाथजी तथा शेष सभी प्रतिमाएं दिगम्बर आम्नायकी हैं । इनका निर्माण एवं प्रतिष्ठा दिगम्बर बन्धुओं द्वारा हुई है । मन्दिरमें मूलसंघ और
ठासंघके भट्रारकोंकी गहियाँ प्रारम्भसे ही रही हैं। अतःमलतः यह क्षेत्र और प्रतिमा दिगम्बर है। इस तथ्यको कभी चुनौती नहीं दी जा सकती है। लेकिन मन्दिरको व्यापक मान्यता और विशाल आयको देखकर श्वेताम्बर भाइयोंने क्षेत्रपर अपना अधिकार जमानेका कुटिल प्रयत्न करना प्रारम्भ किया । मन्दिरका प्रबन्ध पहले यहाँके भट्टारक ही करते थे। कालक्रमसे भट्टारकों और स्थानीय दिगम्बर जैन समाजके हाथोंसे निकलकर मन्दिरका प्रबन्ध उदयपुरके महाराणाके हाथमें पहुँच गया। महाराणाकी देखरेखमें तीर्थका प्रबन्ध होने लगा। उस ससय मेवाड़ सरकारमें श्वेताम्बर जैन कर्मचारियोंका बोलबाला था। अतः श्वेताम्बरोंने अपने प्रभावका अनुचित लाभ उठाना चाहा । जब संवत् १९८४ में सेठ पूनमचन्द करमचन्दजी कोटावालोंको ओरसे ध्वजादण्डारोहणका समारोह हो रहा था, श्वेताम्बरोंने महाराणाकी अनुमतिके बिना ध्वजादण्ड चढ़ानेका अनधिकार प्रयत्न किया। उन्होंने ध्वजादण्ड चढ़ानेके साथ इस बातका भी प्रयत्न किया कि दक्षिण दिशावाले बड़े मण्डपकी प्रतिमाओंपर मुकुट कुण्डल भी चढ़ा दिये जायें । यद्यपि दिगम्बर भाइयोंने श्वेताम्बरोंकी अनधिकार चेष्टाका विरोध किया, किन्तु उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। बल्कि श्वेताम्बरोंके संकेतपर मन्दिरके हाकिम श्री लक्ष्मणसिंहने दिगम्बरोंको मन्दिरसे निकालनेका आदेश दे दिया। सिपाहियोंने आदेश पाते ही मारकाट शुरू कर दी, मन्दिरके फाटक बन्द कर दिये गये, भागनेवालोंको द्वारपर रोक दिया गया। क्षेत्रपर दर्शनोंके लिए आये हुए