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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मन्दिरके प्रबन्धक तथा अन्य कर्मचारियोंके कार्यालय बने हैं। ये कोट बननेके बाद संवत् १८७३ में बने हैं। इससे आगे एक कोठरीमें उत्सवकी सामग्री रहती है।
___मुख्य मन्दिरमें मूलनायकके ऊपर विशाल और भव्य शिखर है। इसके अतिरिक्त चारों दिशाओंमें चार शिखर हैं जो काफी विशाल और उत्तुंग हैं। छोटे-मोटे ४९ शिखर और हैं। मन्दिरकी बाह्य भित्तियोंपर कोष्ठकोंमें अनेक खड्गासन जिन-प्रतिमाएं बनी हुई हैं। केशरिया मन्दिरमें कुल ७२ पाषाणकी मूर्तियां हैं जिनमें ९-१० श्वेतवर्णकी हैं, शेष श्यामवर्णको हैं । मन्दिरके प्रतिष्ठा महोत्सव और ध्वजादण्डारोहण __मन्दिरमें प्रतिष्ठा महोत्सव और ध्वजारोहण कब-कब हुए, इसका पूरा इतिहास बताना कठिन है। किन्तु विभिन्न कालोंमें मन्दिरोंको प्रतिष्ठा हुई अथवा मूर्तियों की स्थापना हुई, उन अवसरोंपर प्रतिष्ठा महोत्सव हुए और ध्वजारोहण भी हुआ, यह विश्वास करनेके तर्कसंगत कारण हैं । इनके समर्थक कुछ लेख और शिलालेख विद्यमान हैं।
निज मन्दिर और मुख्य मूर्तिकी प्रतिष्ठा प्रारम्भमें कब हुई, इसका निर्णय अभी तक नहीं हो पाया है। इसलिए उसका कोई काल निश्चित करना सम्भव नहीं है। किन्तु वि. सं. १४३१ में मुख्य मन्दिरका जीणोद्धार हुआ। उस अवसरपर प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ था। ध्वजादण्डाराहण भी प्रतिष्ठा-विधानका एक अंग होनेके कारण वह भी हआ था। इसके पश्चात् वि. सं. १५७२ का शिलालेख मिलता है। इसके अनुसार निज मन्दिरके आगेकी नौचौकी और सभामण्डपका निर्माण हुआ था और खेला मण्डपमें पंचबालयतिको प्रतिमाएं विराजमान की गयी। इस अवसरपर भी इन मूर्तियोंका प्रतिष्ठोत्सव और ध्वजादण्डारोहण किया गया। तत्पश्चात् सं. १६११-१२ में खेला मण्डपकी कुछ प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा हुई थी। तब तक बावन चैत्यालयोंका निर्माण नहीं हआ था, उस समय विचाराधीन अवश्य था। अतः इनकी प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा भी इस अवसरपर हुई थी। यह प्रतिष्ठा होनेके पश्चात् जैसे-जैसे चैत्यालयोंका निर्माण होता गया, प्रतिमा विराजमान कर दी गयी। इन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा मूलसंघके भट्टारक शुभचन्द्रजीने करायी थी। इसके पश्चात् भट्टारक वादोभूषणने वि. सं. १६५१ में एक प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करायी। संवत् १६५१ से १७३४ तकके अन्तरालमें कोई प्रतिष्ठा नहीं हुई। किन्तु बावन चैत्यालयोंका निर्माण निरन्तर हो रहा था। जब निर्माण कार्य पूरा हो गया, तब स्वतन्त्र रूपसे समय-समयपर प्रतिष्ठाएं भट्टारकोंके तत्त्वावधानमें होती रहीं। इन प्रतिष्ठाओंके प्रतिष्ठाचार्य भट्टारक हो थे। इनमें उल्लेखनीय प्रतिष्ठाएं संवत् १७५४ और १८६३ में हुई। इन प्रतिष्ठाओंके अवसरपर भारतके दिगम्बर जैन धर्मानुयायो सहस्रोंकी संख्यामें एकत्रित हुए थे।
संवत् १५७२ के पश्चात् संवत् १६८६ में बाज जातिके काष्ठासंघो कोड़िया भीमाके पुत्र जसवन्तने निज मन्दिरपर कलश और ध्वजादण्ड चढ़ाये । इसका प्रमाण संवत् १७३० में लिखे गये लेखसे मिलता है जो इस प्रकार है
___ "संवत् १६८६ वर्ष ज्येष्ठ सुदी ९ सोमे खडग देशे धुलेव नग्रे रावलजी श्री सूर्यमलजी विजय राज्ये गिरीपुरे रावल श्री पूंजाजी विजय राज्ये श्रीमत्काष्ठासंघे भट्टारक श्री राजकीर्तिजी उपदेशात् कोठिया श्री पद्मसी भार्या पद्मादे सुत कोड़िया भीमा प्रथम भार्या पद्मावती द्वितीय भार्या बाई मनकाई सुत कोडिया जसवन्त प्रथम भार्या सुजाणदे द्वितीय भार्या सोमागदे तस्य सुत ४ प्रथम पुत्र कोड़िया सिंघजी भार्या केशरदे तत्सुत कोड़िया जेतसिंहजी द्वितीय पुत्र कोड़िया बाघजी भार्या मोपणदे तृतीय पुत्र कोडिया लामजी प्रथम भार्या बालमदे द्वितीय भार्या लाणगदे सुत मनोहरदास