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राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थं
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नौचौकी के सामने सभा मण्डपमें एक लघु वेदी बनी हुई है, जिसपर माण्डना माढ़कर दिगम्बर लोग पूजन करते हैं तथा विशेष अवसरों पर इसपर विशेष सजावट करके दिगम्बर लोग कीर्तन करते हैं ।
पर्युषण पर्व १० दिनों में नीचेकी वेदी और ऊपरकी वेदीपर दिगम्बर समाज मण्डप बनाकर और माडने माड़कर सारे दिन पूजन करती है । यहीं दिगम्बर लोग व्रतोंका उद्यापन करते हैं । मण्डपके दक्षिण भाग में सिंहासननुमा एक चबूतरा बना हुआ है । यह स्थान सदासे माथुर संघी दिगम्बर भट्टारकों को शास्त्र सभा के लिए गद्दी के रूपमें प्रयुक्त होता रहा है । किन्तु वि. सं. १९६९ में मन्दिरके दरोगा श्री तखतसिंहने साम्प्रदायिक व्यामोहवश मरम्मत करानेके बहाने चबूतरेपर 'श्रीमद्भागवत' लिखवा दिया। उन्होंने यह कार्यं भाद्रपद मासकी एक ही रात्रिमें करवा डाला । अपने अधिकारका उल्लंघन कर जैनोंको धार्मिक भावनाओंको चोट पहुँचानेवाले उस कर्मचारीके विरुद्ध राज्यकी ओरसे कोई कार्यवाही नहीं की गयी, अपितु उसके अनधिकारपूर्णं इस कृत्यको स्थायित्व प्रदान करके राज्यने मानो मौन स्वीकृति प्रदान कर दी ।
निज मन्दिरके चारों ओर ५२ जिनालय या देवकुलिकाएं बनी हुई हैं। इनमें प्रत्येकके मध्य में मण्डप सहित मन्दिर बने हुए हैं। इन मन्दिरोंमें स्कन्धचुम्बी जटायुक्त भगवान् ऋषभदेवकी मुख्य प्रतिमाएँ हैं । ये मन्दिर शिखरबन्द हैं । इन जिनालयों और निज मन्दिरके बीच भीतरी परिक्रमा है । इससे इन मन्दिरोंके दर्शन करनेसे निज मन्दिरको परिक्रमा स्वतः हो जाती है । इन जिनालयों में पश्चिमको पंक्ति में एक स्तम्भमें १००८ दिगम्बर जिन प्रतिमाएँ बनी हुई हैं । जिसे सहस्रकूट चैत्यालय कहते हैं । पूर्व में जिनालयोंके मध्य में एक हाथी बना हुआ है । हाथी के दोनों ओर पाषाण-चरण बने हुए हैं। उनके नीचे चंवरवाहक इन्द्र हैं । पूर्वमें पाषाणोंमें एक ओर भरत- बाहुबलीका युद्ध प्रदर्शित किया गया है और साथ ही बाहुबलीको मुनिके रूपमें ध्यान करते हुए दिखाया है ।
दक्षिणकी ओरसे बावन जिनालयोंका प्रारम्भ होता है । ये जिनालय वि. सं. १६११ से १८६३ तक बने हैं । इनकी रचना क्रमशः हुई है, एक साथ नहीं हुई । दक्षिण के जिनालयों में मण्डप सहित जो मन्दिर हैं, उसके पास एक कोठरी है । पहले इसमें भट्टारकजी निवास करते थे । किन्तु आजकल मन्दिरके उपकरण रखे जाते हैं । उसके सामने मण्डपमें काष्ठासंघ के भट्टारकजी की
है । भट्टारकजी तथा उनके शिष्य ब्रह्मचारीगण यहीं पर गद्दी बिछाकर बैठते हैं और शास्त्र पढ़ते हैं । उत्तरकी जिनालय पंक्ति में बड़े मन्दिरके चौकमें मूलसंघो भट्टारकजी की गद्दी है । इससे आगे जिनालयों में मन्दिरका प्राचीन भण्डार है । ऊपर जिस चैत्यालयका उल्लेख किया गया है, वह काँचकी एक अलमारी में है । उसमें ९ धातु मूर्तियाँ हैं । यह काष्ठासंघो भट्टारकों का चैत्यालय कहलाता है । जब ये भट्टारक बाहर जाते थे, तब वे इसे प्रवासमें अपने साथ ले जाते थे । इसके आगे एक जिनालय में पाषाणका नन्दीश्वर जिनालय है । जिनालयों में कई स्थानोंपर चक्रेश्वरी, पद्मावती, अम्बिका आदि देवियोंकी मूर्तियाँ हैं ।
दक्षिणकी ओर स्नानागारके मार्ग में भगवान् पार्श्वनाथका मन्दिर है । मन्दिरकी प्रतिष्ठा संवत् १८०१ में हुई थी। इसमें मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथकी श्याम-वर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । प्रतिमापर सहस्र फणावलि सुशोभित है। इसलिए इस प्रतिमाको सहस्रफणी पार्श्वनाथ कहा जाता है । इस मन्दिर में दिगम्बर सप्तर्षियोंकी ध्यानमग्न मुद्राकी प्रतिमाएँ हैं । मन्दिर में टाइल्स और कांच जड़कर अत्याधुनिक रूप दे दिया गया है ।
मन्दिरसे आगे भट्टारकों का विश्रामस्थल, कूप और स्नानागार बने हुए हैं। उत्तरी भाग में