________________
GITTIS
राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ
१०९ दी थी। उस समय मन्दिरमें-से अगणित भौंरे निकले और आततायियोंपर आक्रमण कर दिया। फलतः आततायी मारे गये । बादमें पुजारीको स्वप्न हुआ कि सवा सौ मन लापसी बनाकर एक गढ़ेमें भर दो और प्रतिमाके खण्डित टुकड़ोंको यथास्थान जोड़कर प्रतिमा उसमें दबा दो। पुजारीने ऐसा ही किया। प्रतिमा न देखकर कुछ भक्तोंने उसके बारेमें पूजारीसे पूछताछ की। पू सारी घटित घटना सुना दी। भक्तोंने पुजारीसे प्रतिमाके दर्शन करानेका अत्यधिक आग्रह किया। अन्तमें पुजारीने बाध्य होकर सातवें दिन ही प्रतिमा निकाली। प्रतिमाके टुकड़े यद्यपि जुड़ चुके थे किन्तु दो दिन पूर्व निकालनेके कारण प्रतिमापर घावके चिह्न बने रह गये जो अब तक विद्यमान हैं।
जिस प्रकार इस मूर्ति की प्राप्तिका कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध नहीं होता, उसी प्रकार इस मतिका निर्माण-काल भी विवादास्पद बना हआ है। भक्त लोग उसको चतुर्थं कालकी मानते हैं। कुछ लोगोंकी मान्यता है कि इस मूर्तिका निर्माण ईसवी पूर्व ६-७ शताब्दीमें हुआ होगा। अन्य कुछ लोगोंकी मान्यता है कि इस प्रतिमाका निर्माण आठवीं शताब्दीमें हुआ और उज्जैन संघके आचार्य ( भट्टारक ) विद्यानन्दिने, जिनका भट्टारक-काल सन् ७५१-७८३ है, इसकी प्रतिष्ठा करायी थी। इस मान्यताके समर्थनमें कुछ लोग इसी मन्दिरके खेला मण्डपमें लगे हुए संवत् १५७२ के शिलालेखको प्रमाणमें उपस्थित करते हैं। उस शिलालेखको अन्तिम पंक्ति में निम्नलिखित पाठ मिलता है-'सहस टंका सी ८०० इटड़ी कथ्यः'। इस वाक्यांशका अर्थ कुछ लोग '८०० टंका ( तत्कालीन प्रचलित मुद्रा) खर्च करके बनवाया' करते हैं; अन्य कुछ लोग अर्थ करते हैं कि संवत् ८०० में कच्ची ईंटोंका मन्दिर बनवाया गया।
मूर्तिके निर्माण-कालकी उपर्युक्त समस्त मान्यताएं कल्पनामूलक हैं। किसी पुरातात्त्विक साक्ष्य या ऐतिहासिक आधारके बिना इन मान्यताओंका समर्थन जुटाना कठिन है। मूर्तिको चतुर्थ कालकी मानना तो तबतक सम्भव नहीं है, जबतक पुरातत्त्ववेत्ता इस मान्यताको अपना समर्थन प्रदान नहीं करते । हडप्पाके शिरोहीन कबन्धको छोड़कर अन्य कोई ज्ञात मूर्ति अब तक ईसवी सन्से पूर्वकालकी उपलब्ध नहीं हो पायी और ये मूर्तियां या प्लेटें भी जैन योगी ऋषभदेवकी हैं, इसकी भी सर्वसम्मत स्वीकृति अब तक प्राप्त नहीं हुई । ज्ञात मूर्तियोंमें सर्वाधिक प्राचीन पटनाके लोहानीपुर मुहल्लेसे प्राप्त शिरोहीन कबन्ध है, जिसे मौर्यकालीन स्वीकार किया गया है और जिसे जैन तीर्थंकरकी कायोत्सर्गासन मूर्ति होनेकी सर्वसम्मत स्वीकृति प्राप्त हो चुकी है। भारतमें उपलब्ध पाषाण मूर्तियाँ-चाहे वे जैन, हिन्दू या बौद्ध किसी धर्मसे सम्बन्धित हों-मौर्योत्तरकालीन मानी जाती हैं। ऐसी दशामें केशरियानाथकी मूर्तिको चतुर्थकालीन मानना धार्मिक श्रद्धा और भावुकताका परिणाम है । इस मान्यताका मूलाधार मूर्तिपर किसी लांछन या लेखका अभाव है। भारतमें इस प्रकारकी लेख-लांछनहीन मूर्तियोंको संख्या पर्याप्त है, जबकि उनका निर्माण-काल ईसवी सन्के पश्चात्कालका रहा है। उक्त मूर्तिको रचना शैली और विकसित भावाभिव्यंजना और शिल्प विधानको देखकर उसे आठवीं या उसके आस-पासको शताब्दीकी मानना युक्तसंगत प्रतीत होता है। भट्टारक विद्यानन्दि द्वारा प्रतिष्ठित किये जानेकी बात भी अयथार्थ नहीं जान पडती। किन्तु इसके लिए भी कुछ सबल प्रमाण खोजनेकी आवश्यकता है। खेला मण्डपके संवत १५७२ के शिलालेखसे इस मान्यताको पुष्टि नहीं होती और न उसका अर्थ ही वह निकलता है।
आदि तीर्थंकर ऋषभदेवकी यह दिगम्बर जिन प्रतिमा जिन मन्दिरमें विराजमान है। यह एक फुट ऊँचे धातुके आसनपर विराजमान है। इस चरण चौकीके मध्य में दो बैलोंके मध्य में देवी बनी हुई है जो सम्भवतः ऋषभदेवकी यक्षी चक्रेश्वरी है। इसके अतिरिक्त हाथी, सिंह, देव