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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ के मन्दिरको तोड़कर लौटता हुआ यहां आया और इस मूर्तिको तोड़ना चाहा। किन्तु उसकी सारी फौज अन्धी हो गयी। बादशाहने पुनः प्रतिमापर आक्रमण करना चाहा। किन्तु रातमें पुजारीको स्वप्न आया। उसके अनुसार पुजारी कांवरमें इस मूर्तिको धुलेव गांव ले आया और मन्दिर बनवाकर यहां विराजमान कर दिया।
इसी प्रकारकी एक दूसरी किंवदन्ती भी बह प्रचलित है। महमद गजनवीने अनेक मन्दिरों और मूर्तियोंको तोड़ा । भक्तजन इस मूर्तिकी सुरक्षाकी दृष्टिसे इसे कांवरमें रखकर खशादरी ले आये। किन्तु आश्चर्य कि मूर्ति वहाँसे अन्तर्धान हो गयी। पुजारी उसे ढूंढ़ता फिरा। महाजनकी गायें वहाँ जंगलमें चरने जाती थीं, उनमें से एकाएक एक गायने दूध देना बन्द कर दिया। एक दिन नौकर गायके पीछे गया। देखा कि गाय एक झाड़ीमें गयी और एक प्रतिमापर उसका दूध झड़ने लगा । सब लोग इस चमत्कारको देखकर भगवान्की जय-जयकार करने लगे। वहाँ झोपड़ी बनाकर पूजाको व्यवस्था की गयी। कुछ समय पश्चात् वहाँ मन्दिरका निर्माण किया गया।
केशरियानाथके चमत्कारको एक और घटना इस प्रकार प्रचलित है-जहाज समुद्र में फंस गया। उसके बच सकनेकी आशाएं क्षीण हो चुकी थीं। जहाजके यात्रो मृत्युकी विभीषिकासे आतंकित थे। मृत्युके इस भंवरमें फंसकर उनमें से कुछ भक्तोंने संकटमोचनहार केशरियानाथका ध्यान किया और प्रार्थना की-"प्रभो ! तुम करुणासागर हो । जो तुम्हारी शरणमें जाता है, उसे तुम भवसागरसे पार कर देते हो। आपका नाम-स्मरण करनेसे हमारा यह जहाज सागरसे पार हो जाये तो इसमें आश्चर्य क्या है!" सबने आश्चर्यके साथ देखा कि फंसा हुआ जहाज लहरोंपर हौले-हौले उतरता हुआ तटपर जा लगा । भक्तजनोंकी करुण पुकार करुणासागर केशरियानाथने सुन ली थी। प्रतिदिन आरतोके बाद बोले जानेवाले एक स्तवन में इस घटनाका उल्लेख रहता है। उस स्तवनकी प्रथम कड़ी इस प्रकार है
'केशरियाजीने जहाजको लोग तिराये।
माने एही अचरज भारी आयो ।' इस प्रकार केशरियाजीके चमत्कारोंके सम्बन्धमें न जाने कितनी किंवदन्तियाँ लोकमें प्रचलित हैं। मूलनायक प्रतिमाका इतिहास
मूलनायक भगवान् ऋषभदेवको प्रतिमाका निर्माण-काल और इतिहास अत्यन्त विवादास्पद है। 'इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इण्डिया' में इसके सम्बन्धमें बताया है कि यह प्रतिमा तेरहवीं शताब्दीके अन्त में गुजरातसे यहाँ लायी गयी थी। कुछ लोगोंकी मान्यता है कि गुजरातसे यह उज्जैन लायी गयी अथवा यह उज्जैनमें ही विराजमान थी और वहाँसे मुसलमानोंके आक्रमणके कारण यहाँ लायी गयी।
कुछ लोग इस प्रतिमाको प्राप्तिका अद्भुत इतिहास बताते हैं। उनका कहना है कि जब श्री रामचन्द्रजी लंकासे अयोध्या आये, तब वे अपने साथ भगवान् ऋषभदेवकी इस प्रतिमाको भी लाये थे। बहुत समय पश्चात् अयोध्यासे यह उज्जैन में, वहाँसे डूंगरपुर राज्यके अन्तर्गत बड़ौदा गाँवमें पहुंची । वहाँसे किसी दैवी चमत्कारसे या अन्य किसी प्रकार उस टीलेमें पहुँच गयी, जहाँ कि 'पगल्या' ( चरण ) बने हुए हैं। वहाँसे ही यह प्रकट हुई।
उपर्युक्त मान्यताओंमें तथ्यांश कम और कल्पना अधिक है। किन्तु कुछ लोगोंको यह कहानी इससे भी अधिक रोचक है कि तेरहवीं शताब्दीमें मुसलमानोंने आक्रमण करके मूर्ति खण्डित कर