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राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ
१०७ अतिशय क्षेत्र
श्री ऋषभदेव ( केशरियाजी ) क्षेत्र अतिशय क्षेत्रके रूपमें विख्यात है। यहांकी मूलनायक प्रतिमा भगवान् ऋषभदेवकी है। प्रतिमा श्यामवर्णकी होनेसे भील लोग इसे कालाजी और कारिया बाबा कहते हैं। कुछ लोग धूलेवाथणी या 'केशरियालाल' भी कहते हैं। यह पाषाणनिर्मित पद्मासन प्रतिमा श्यामवर्ण साढ़े तीन फुट अवगाहनावाली है। यह समचतुरस्र संस्थानयुक्त
और अत्यन्त चित्ताकर्षक है। इस प्रतिमाके नानाविध चमत्कारोंको किंवदन्तियाँ जनतामें बहुप्रचलित हैं । इसके चमत्कारोंसे आकर्षित होकर न केवल दिगम्बर जैन, अपितु श्वेताम्बर जैन, हिन्द्र, भील आदि सभी लोग यहां आकर मनौती मनाते हैं। अनेक लोग यहाँ केशर चढ़ाते हैं, जिससे इस क्षेत्रका नाम 'केशरियाजी' पड़ गया है। सन्तान-प्राप्तिकी कामना लेकर आनेवाले कुछ भक्त तो सन्तान होनेपर उसके भारके बराबर केशर चढ़ाते हैं। कुछ लोग अपने बच्चोंको चाँदी, रुपये, घी, शक्कर, गुड़ आदिसे तौलकर ये वस्तुएं भगवान्के चरणोंमें चढ़ाते हैं। भगवान्की यह सकाम भक्ति भी पुण्य-बन्धका कारण है । भगवान्की भक्तिसे मनमें शुभ भावोंका संचार होता है । निश्चय ही इससे पापका क्षय और पुण्यका संचय होता है। उस पुण्यके कारण मनोकामना पूर्ण होती है।
यहाँ कितने भक्त मनमें कामना लेकर आते हैं और कितनोंको कामनाएँ पूर्ण होती हैं, यह बताना कठिन है। किन्तु सर्वसाधारणमें केशरिया भगवान्के प्रति जो अगाध आस्था और श्रद्धा है उससे ही लगता है कि केशरियानाथके चमत्कारोंका जनता अनुभव करती है, उनकी अचिन्त्य महिमाको हृदयसे स्वीकार करती है। उसको श्रद्धा अनुभवसे उपजी है। इसीलिए शताब्दियोंका लम्बा काल भी उस श्रद्धाको कम नहीं कर सका है।
वहाँके चमत्कारोंको और कामना-पतिके अनेक आख्यानोंको सुनाते हए भक्तजनोंको आह्लादका अनुभव होता है। ऐसी ही एक बात वि. सं. १८६३ की है। होल्करका सेनापति सदाशिवराव गलियाकोट डूंगरपुर आदि गाँवोंको लूटता हुआ धुलेव आया। वह मन्दिरमें जा घुसा और वेदीके पास खड़े रहकर वह अभिमानपूर्वक भगवान्से बोला "जैनदेव ! ले मैं रुपया फेंक रहा हूँ। अगर तुझमें शक्ति है तो मेरा रुपया स्वीकार कर ले।" भगवान्को तो विनय और भक्तिसे प्रसन्न किया जा सकता है, अश्रद्धा और अहंकारके स्वर भगवान्का प्रसाद नहीं पा सकते । सदाशिवने अहंकारके जिस प्रबल वेगसे रुपया भगवानकी ओर फेंका था, वह रुपया उसी वेगसे लौटकर उसके मस्तकमें आकर लगा । मस्तकसे रक्त निकलने लगा। विवेकी पुरुषोंको संकेत ही पर्याप्त होता है किन्तु जिनकी अन्तरकी आंखें अविवेक, अश्रद्धा और अभिमानके मदसे उनोंदी हो रही हैं, वे ठोकर खाकर भी सावधान नहीं हो पाते। मदान्ध सदाशिवको आँखें इससे भी नहीं खुलीं। उसने सेनाको आज्ञा दी-"मन्दिरको लूट लो।" सेना मन्दिर लूटनेके लिए ज्यों ही बढ़ो, मन्दिरमें-से टिड्डीदलके समान भौंरे निकलकर उस सेनापर टूट पड़े । मूखं सदाशिव अपनी सेनाके साथ वहांसे प्राण बचाकर भागा। वह
वह हड़बड़ीमें बहुत-सा सामान भी छोड़ गया। उसके मनपर इतना आतंक छा गया कि उसने जीवनमें दुबारा फिर कभी इधर आनेका साहस नहीं किया। इस घटनाकी गूंज उस प्रदेशके लोकगीतोंमें भी सुनाई पड़ती है। एक लोकगीतकी पंक्ति इस प्रकार है
'तोपखाना तो पड़ा रहा ने राव सदाशिव भाग गया।'
इससे मिलती-जुलती कई और भी किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है, पहले यह प्रतिमा यहाँसे २० कोस दूर जंगल में एक मन्दिर में विराजमान थी। अलाउद्दीन खिलजी सोमनाथ