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________________ १०२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्रका इतिहास इस क्षेत्रके सम्बन्धमें अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हैं। कहते हैं, एक्त भील किसान एक बार अपने खेतमें हल चला रहा था । अकस्मात् उसका हल पत्थरसे टकराया। किसानने उस पत्थरको प्रयत्नपूर्वक निकाला। किन्तु उसे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वह साधारण पाषाण नहीं है, बल्कि पाषाणके भगवान् हैं । भगवान्ने साक्षात् दर्शन दिये हैं, इस विश्वाससे वह भगवान्के सामने भक्तिसे नृत्य करने लगा। धीरे-धीरे यह समाचार उसके परिवार और जातिवालोंको भी मालूम हुआ। अबोध भक्तोंका वहाँ मेला लग गया। सबने भगवान्के ऊपर तेल-सिन्दूर पोतकर खूब भक्ति की। प्रतिदिन ये लोग इसी प्रकार भगवान्को भक्ति करके रिझाने लगे । भगवान्का थान भी एक खेजड़े के वृक्षके नीचे बन गया। एक दिन कलिंजराके श्री भीमचन्द महाजनको स्वप्न आया। दूसरे दिन महाजन यहाँ पहुंचा, दर्शन किये, अभिषेक किया। यह समाचार दिगम्बर जैन समाजको भी ज्ञात हुआ। जैन लोग यहाँ आये और छोटा-सा मन्दिर बनवाकर उसमें मूर्तिको विराजमान कर दिया। धीरे-धीरे अन्देश्वर पार्श्वनाथकी प्रसिद्धि सारे बागढ़, मध्यप्रदेश और गुजरात प्रान्तमें फैल गयी। फलतः जनता अधिकाधिक संख्यामें आने लगी। अतिशय __ भगवान् पाश्वनाथको उपर्युक्त मूर्तिके अतिशयोंके सम्बन्धमें लोगोंमें अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं । कहते हैं, एक बार चोरोंने चाँदीके किवाड़ उतार लिये और उन्हें लेकर चल दिये । एक बार उन्होंने फिर प्रयत्न किया और अबको बार तिजोड़ी खोलकर रुपये निकाल लिये । किन्तु इस बार वे जा नहीं सके, वे अन्धे हो गये और यहींपर पासके जंगलमें भटकते रहे। कहा नहीं जा सकता कि इन बातोंमें कहाँ तक सचाई है। मूर्तिके अतिशयोंसे प्रभावित होकर अनेक जैन और जेनेतर व्यक्ति यहाँ मनोकामना लेकर आते हैं। क्षेत्र-दर्शन यह क्षेत्र पहाड़के ऊपर जंगलमें है। यहां कोई बस्ती नहीं है, केवल दो दिगम्बर जैन मन्दिर और धर्मशाला हैं । दोनों ही मन्दिर पार्श्वनाथ मन्दिर कहलाते हैं । एक मन्दिर कुशलगढ़को श्री दिगम्बर जैन पंचायतने बनवाया था। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९६५ में हुई थी। भगवान् पाश्वनाथकी श्यामवर्ण चामत्कारिक मति इसी मन्दिर में विराजमान है। दसरा मन्दिर कशलगढ वासी श्री हीराचन्द महाजनने बनवाया था, जिसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् १९९२ में हुई थी। इसका निर्माण कार्य अब भी चल रहा है। इनमें पहला मन्दिर ही बड़ा-मन्दिर कहलाता है। बड़े-मन्दिरमें गर्भगृह और सभा-मण्डप है। उसके आगे सहन है। मूलनायक भगवान् पार्श्वनाथकी १ फुट ८ इंच ऊंची कृष्ण पाषाणको पद्मासन प्रतिमा है। प्रतिमाके ऊपर सप्त फणावली है। यह प्रतिमा एक शिलाफलकमें है। भगवानके सिरके ऊपर तीन छत्र हैं। उनके दुन्दुभिवादक हैं। उनके ऊपर भी पांच पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं। इनके दोनों पावों में आकाशचारी देव और गज हैं। फणके पार्यों में मालाधारी गन्धर्व हैं। उनसे नीचे दोनों ओर खड्गासन मूर्तियाँ हैं । इस मूर्तिके ऊपर कोई लेख नहीं है। यह मूर्ति इसी स्थानपर निकली थी। कहते हैं, जब इस मूर्तिको बाहर मन्दिर में विराजमान करनेके लिए ले जाना चाहा तो वह उठाये न उठो । तब उसी स्थानपर दूसरा मन्दिर बनाया गया।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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