SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ अतिशय वि. संवत १९०२ में भगवान शान्तिनाथकी ५ फूट उत्तंग अति मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान की गयी। इस प्रतिमाको स्थापनाके बाद इस मन्दिरको अतिशय क्षेत्र माना जाने लगा। अतिशय क्षेत्रके रूपमें इसकी मान्यता निरन्तर बढ़ती गयी। जैनोंके अतिरिक्त आसपासको ग्रामीण और भील जनतामें भी इस क्षेत्रकी बहुमान्यता है । फलतः प्रतिवर्ष यहां हजारों जैनेतर भी दर्शनार्थ आते हैं। इनका विश्वास है कि भगवान् शान्तिनाथको मान्यतासे उनके सभी मनोवांछित कार्य पूरे हो जाते हैं । साधारण जनता ही नहीं, यहाँके राजा और जागीरदार भी इस प्रतिमाके बड़े भक्त रहे हैं। मनोकामनाएं पूर्ण होनेपर वे यहाँ भेटें भी देते रहे हैं। महाराज रघुनाथसिंहजीके महाराजकूमार मानसिंहजीने इस मन्दिरके लिए जागीर दी थी। इसी प्रकार उनके सुपूत्र अन्तिम महाराज रामसिंहजीने पुत्रजन्मकी मान्यता पूरी होनेके उपलक्ष्यमें विक्रम सं. १९०५ में अपने आदेश संख्या २३२८ दिनांक ७-३-३४ द्वारा प्रतापगढ़ रियासतकी सीमामें एक वर्ष में दो बार अर्थात् फाल्गुन शुक्ला ८ और १४ को किसी जीवकी हिंसा न करनेका आदेश जारी किया था. जिसका पालन अब तक होता चला आ रहा है। इसी मूर्तिके चामत्कारिक प्रभावोंके कारण मन्दिरका नाम भी श्री शान्तिनाथ मन्दिर हो गया है । मूतिके चमत्कारोंके सम्बन्धमें जनतामें अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हैं। ___ कहा जाता है कि विक्रम सं. १९९० में जब मन्दिरका जीर्णोद्धार कराया गया था, मन्दिरका द्वार बहत छोटा था। उसमें से प्रतिमा अन्दर नहीं जा सकती थी। प्रतिमाको अन्दर वेदीमें विराजमान करना था। सब लोग इस समस्याके कारण चिन्तित थे। तब रात्रिमें प्रतिष्ठाचार्य भट्रारक हेमचन्द्रजीको स्वप्न हआ, "मैं आज रात्रिको स्वयं अपने स्थानपर आरूढ़ हो जाऊंगा, तुम केवल अपना हाथ ही लगा देना।" प्रातःकाल लोगोंने देखा कि प्रतिमा अपने उद्दिष्ट स्थानपर विराजमान हो गयी। इसी प्रकार एक दूसरी किंवदन्ती है कि वमोतर गांवसे ५ कि. मी. दूर वमोतर गांवके जागीरदार आसौज सुदी ८ अर्थात् होमाष्टमीको शान्तिनाथ मन्दिरसे २ फलांगपर स्थित खम्बा देवीके मन्दिरमें प्रतिवर्ष २०-२५ बकरोंकी बलि दिया करते थे। उन्हें शान्तिनाथकी दुहाई देकर बलिसे रोका गया, किन्तु ठाकुर साहब नहीं माने। उन्होंने ज्यों ही तलवार उठायी कि हाथ तलवारसे चिपक गये । जब उन्हें शपथ दिलाकर शान्तिनाथका गन्धोदक पिलाया गया, तब उनके हाथ तलवारसे पृथक् हुए। क्षेत्रपर जीर्णोद्धार कार्य क्षेत्रका जीर्णोद्धार सर्वप्रथम विक्रम सं. १९६० में हरजीत टेकेवाले दिगम्बर जैन प्रतापगढ़ने कराया था। इसके पश्चात् संवत् १९९० में संघपति सेठ घासीलाल पूनमचन्दजीने प्रतिष्ठा करायी। इस महोत्सवमें लगभग एक लाख व्यक्ति बाहरसे पधारे थे। इस प्रतिष्ठा-समारोहकी सर्वाधिक उल्लेखनीय घटना चारित्र-चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराजका संघसहित यहाँ पधारना था। आचार्य महाराज बीसवीं शताब्दीके पूर्वार्धमें सर्वाधिक प्रभावशालो दिगम्बर जैनाचार्य थे। क्षेत्र-दर्शन मन्दिरमें गर्भगृह और दो खेला मण्डप हैं। गर्भगृहमें चबूतरेनुमा वेदीपर भगवान् अजितनाथकी मूलनायक मूर्ति विराजमान है। यह २ फुट ७ इंच ऊँची कृष्णवर्ण पद्मासन है। गी।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy