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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ ढाल-हवइ दिगंवर देहरइ रे तिहां जे नवसइ विव । भामंडल पूठइ भलउ रे छत्रत्रय पडिविव । अवियां पूजइ प्रभु पास एतु पूरइ मनकी आस । चर्चा चंदन केवडइ रे गोरी गावइ रास । भावियां पू० ॥" इन दोनों रचनाओं में से पहली रचनामें बताया है कि हूमड़ पूनाने कीर्तिस्तम्भ बनवाया। वह सातों भुवनोंमें विख्यात था और उसमें दो हजार जिनबिम्ब थे। तथा दूसरी रचनामें बताया है-हूमड़ पूनाको पुत्रीने अपने पितासे कहा-"आप इस विख्यात कीर्तिस्तम्भको पूरा करा दीजिए। इससे धनकी बेल सूखेगो नहीं। इसे अत्यन्त कलात्मक और ऊँचा बनवाइए, जिससे इसकी सातों भुवनोंमें कीर्ति हो। इसमें दो सहस्र बिम्ब विराजमान कराइए।" वहाँ पाश्वंप्रभुका एक दिगम्बर जिनमन्दिर था, जिसमें ९०० जिनबिम्ब थे। भामण्डल, तीन छत्र भगवान्के ऊपर सुशोभित थे। भव्यजन पाश्वंप्रभुकी पूजा करते हैं। चन्दन, केवड़ा चरचते हैं। ये प्रभु मनको आशा पूरी करते हैं। इन श्वेताम्बर मुनियों द्वारा विरचित रचनाओंसे भी सिद्ध है कि कोतिस्तम्भ दिगम्बर शिल्प है, उसको पुण्यसिंहने अपनी पुत्रीके कहने से पूरा कराया था। उस स्तम्भमें २००० जिनबिम्ब थे। वहाँ एक पार्श्वनाथ दिगम्बर मन्दिर था, जिसमें ९०० जिनबिम्ब विराजमान थे। जैनधर्मका केन्द्र इस पार्श्वनाथ जैनमन्दिरके सम्बन्धमें इतना ही ज्ञात हो सका है कि यह जिनदास शाहका बनवाया हुआ था । गोम्मटसार टीकाकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि इस टीकाके कर्ता भट्टारक नेमिचन्द्र लाला ब्रह्मचारीके आग्रहवश गुजरातसे आकर चित्रकूटमें इसी पाश्वनाथ मन्दिरमें ठहरे थे। यह टीका वीर नि. सं. २१७७ ( ई. स. १६५१ ) में समाप्त हुई थी। भट्टारक नेमिचन्द्र उससे पूर्व ही उक्त मन्दिरमें गये होंगे। इससे प्रतीत होता है कि उक्त मन्दिर बहत विख्यात था और वह १७वीं शताब्दीमें भी विद्यमान था। इस मन्दिरके अतिरिक्त चित्तौड़में उस समय शिलालेखमें उल्लिखित आदिनाथ मन्दिरका अस्तित्व सिद्ध होता है। किन्तु इन मन्दिरोंके अतिरिक्त कोई अन्य दिगम्बर जैनमन्दिर था या नहीं, यह ज्ञात नहीं होता। जो भी हो, पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर और कीर्तिस्तम्भकी ख्यातिसे ही प्रतीत होता है कि चित्तौड़में जैनोंका बहुत प्रभाव था तथा यह स्थान जैनधर्मका प्रभावशाली केन्द्र था। दुर्ग-दर्शन चित्तौड़के दुर्गके सम्बन्धमें विख्यात है—'गढ़ तो चित्तौड़ गढ़ और सब गढ्या हैं'। इस गढ़का निर्माण चित्रांगद मौर्यने कराया था। उसके नामपर ही इस स्थानका नाम चित्रकूट पड़ गया। उसीका अपभ्रंश होकर चित्तौड़ बन गया। यह ५वीं शताब्दीसे १६वीं शताब्दी पर्यन्त गुहिलोत तथा मेवाड़के सिसौदिया नरेशोंकी राजधानी रहा। यह गढ़ शिल्प और स्थापत्य कलाका अनूठा उदाहरण है । यह अपने देशको स्वाधीनताके लिए प्राणोंका उत्सर्ग करनेवाले वीरों और अपने शोलकी रक्षाके लिए धधकती हुई अग्नि-ज्वालाओंमें हँसते-हँसते कूद पड़नेवाली वोर ललनाओंका अमर समाधि-मन्दिर है। चित्तौड़गढ़पर प्रथम आक्रमण सन् १३०३ में हुआ। यह आक्रमण अलाउद्दीन खिलजीने चित्तौड़के शासक रावल रतनसिंहकी अत्यन्त सुन्दरी रानी पद्मिनीको प्राप्त करनेकी आशामें किया
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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