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________________ राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ ब्र. शीतलप्रसादजीने कीर्ति-स्तम्भका निर्माण-काल संवत् ११०० बताया है, किन्तु उनकी इस मान्यताका क्या आधार रहा है, यह स्पष्ट ज्ञात नहीं हो पाया। कई श्वेताम्बर विद्वानोंने चित्रकूटीय महावीर मन्दिरको प्रशस्तिके आधारपर कीर्तिस्तम्भके निर्माताका नाम 'राजा कुमारपाल' अथवा संघवी कुमारपाल लिखा है। इन विद्वानोंने भ्रमवश अथवा पाठका अर्थ ठीक ढंगसे न समझनेके कारण इस प्रकार लिख दिया है। प्रशस्तिका मूल पाठ इस प्रकार है "उच्चैमण्डपपंक्ति-देव-कुलिका विस्तीर्णमाणश्रियं कीर्तिस्तम्भसमीपवर्तिनममुं श्रीचित्रकूटाचले । प्राक्षादसृजतः प्रसादमसमं श्री मोकलार्वीपतेः आदेशाद् गुणराजसाधुरमित स्वच्चैदधासीन्मुदा ॥८६।। प्राग्वंशस्य ललाममण्डपगिरि शोभानमन्नैष्ठिकः प्रष्ठः प्रत्यहष्टधाजिनपतेः पूजा सृजन् द्वादश । संघाधीश कुमारपाल सुकृती कैलाशलक्ष्मीहृतो दक्षः दक्षिणतोऽस्य सोदरमिव प्रासादमादीधषत् ॥९५॥" इन श्लोकोंमें बताया है कि मोकल राजाके आदेशसे गुणराजने चित्रकूट पर्वतपर कीर्तिस्तम्भके समीप मण्डपों और देवकुलिकाओंसे युक्त जिनप्रासाद (जिनालय ) का निर्माण कराया। इस जिनालयके दक्षिणमें प्राग्वाट (पोरवाड़) वंशके संघपति कुमारपालने भगवान् चन्द्रप्रभकी द्वादश पूजा विधान करके जिनप्रासाद बनवाया। प्रशस्तिके इन श्लोकोंमें कहीं भी संघाधीश ( संघपति ) कुमारपाल द्वारा कीर्तिस्तम्भके निर्माणको चर्चा नहीं है और न कहीं कुमारपालको संघवी ही बतलाया है। ये दोनों भूलें संस्कृतका ज्ञान न होनेके कारण हुई लगती हैं। इसी प्रकार मुनि ज्ञानविजयजीकी मान्यता, 'विक्रम सं. ८९५ पहेला नो ए जैन श्वेताम्बर कीर्तिस्तम्भ छे' न केवल भ्रममूलक है, अपितु पूर्वाग्रह और कल्पनापर आधारित है। इस मान्यताका कोई ऐतिहासिक अथवा पुरातात्त्विक आधार नहीं है। स्वयं श्वेताम्बर लेखकोंने इस कोतिस्तम्भको दिगम्बर पूना ( पुण्यसिंह ) द्वारा बनवाया हुआ माना है। संवत् १५६६ के पूर्व रचित जयहेमकृत चित्तौड़ चैत्यपरिपाटीमें लिखा है "हुंवड़ पूना तणी धूआ तेणि ए मति मंडा । कीरतिथंभ करावि जात मा हरी सूखडीअ । सात अँहि सोहामणीइ विव सहस दोइ देखि । पंखी पाछा सचरिआ ए वंदी वीर विशेष ॥१८॥" इसी प्रकार संवत् १५७३ में गयंदि रचित चित्तौड़ चैत्य परिपाटीमें इस स्तम्भके सम्बन्धमें इस प्रकार उल्लेख है "पासइ हुंवड पूनानी सुता दे वात कहइ इक ताता तात रे । सूखडी नइ धन वेगि करावीउ रे कीरतिथंभ विख्यात रे । चउपरि चोखी चिहु परि कोरणी रे ऊंचउ अति विस्तार रे। चडता जे भुंइ सात सोह मणी रे विव सहसदोइ सार नर ॥
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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