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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ भट्टारक धर्मचन्द्रकी गुरु-परम्पराके सम्बन्धमें कुछ मूर्ति-लेखों जौर शिलालेखोंसे प्रकाश पड़ता है। चित्तौड़में प्राप्त एक खण्डित लेखमें, जो विक्रम सं. १३५७ ( ई. सं. १३००) का है, इनकी गुरु-परम्परा इस प्रकार दी है
"मूलसंघ-नन्दिसंघ-बलात्कारगणमें कुन्दकुन्दकी आचार्य परम्परामें केशवचन्द्र (जो तीन विधाओंमें विशारद थे तथा उनके एक सौ एक शिष्य थे), देवचन्द्र, अभयकीर्ति, वसन्तकीर्ति, विशालकीति, शुभकीति और धर्मचन्द्र हुए। इस लेखमें पुण्यसिंहका भी नाम आया है। लेखमें कुल २५ पंक्तियाँ हैं तथा २९ श्लोक हैं।
देवगढ़के मन्दिर नं. १४ के एक स्तम्भ लेखमें मूलसंघ कुन्दकुन्दाचार्यान्वयके केशवचन्द्र, अभयकीर्ति तथा वसन्तकीतिके नाम अंकित हैं।
चित्तौड़के उपर्युक्त लेखमें विशालकीति, शुभकीति और धर्मचन्द्रका उल्लेख है। भट्टारक धर्मचन्द्रकी प्रशंसामें एक लेखमें निम्नलिखित श्लोक उपलब्ध होता है
"श्री धर्मचन्द्रोऽजनि तस्य पट्टे हमीरभूपालसमर्चनीयः। सैद्धान्तिक: संयमसिन्धुचन्द्रः प्रख्यातमाहात्म्यकृतावतारः" ।। २४ ॥
अंजनगांवके बलात्कारगण मन्दिरमें एक हस्तलिखित पदावली है, जिसमें भट्टारक धर्मचन्द्रकी आयु-गणना, उनका समय और जाति आदिका विवरण दिया गया है। इससे न केवल भट्टारक धर्मचन्द्रके काल-निर्णयमें सहायता मिलती है, अपितु चित्तौड़के कीर्ति-स्तम्भकी प्रतिष्ठाका भी काल-निर्णय किया जा सकता है क्योंकि उसकी प्रतिष्ठा इन्हीं भट्टारकजीने करायी थी। पदावलीका पाठ इस प्रकार है
___ "संवत् १२७१ श्रावण सुदि १५ धर्मचन्द्रजी गृहस्थ वर्ष १८ दीक्षा वर्ष २४ पट्ट वर्ष २५ दिवस ५ अन्तर दिवस ८ सर्व वर्ष ६५ दिवस १२ जाति हूँबड़ पट्ट अजमेर।"
भट्टारक धर्मचन्द्रके सम्बन्धमें इतना स्पष्ट विवरण अन्यत्र कहीं देखनेमें नहीं आया। विक्रम सं. १२७१ ( ई. सं. १२१४ ) में वे पट्टपर आसीन हुए और २५ वर्ष तक पट्टपर रहे अर्थात् वे सं. १२७१ से १२९६ ( ई. सं. १२१४ से १२३९ ) तक भट्टारक पदपर रहे। कीर्तिस्तम्भकी प्रतिष्ठा उन्होंने इसी अवधिमें करायी थी । अतः कीर्ति-स्तम्भका निर्माण-काल निश्चित तिथि ज्ञात न होनेपर भी ईसाको तेरहवीं शताब्दी निश्चित होता है।
एक दूसरा शिलालेख भी उदयपुर संग्रहालयमें सुरक्षित है। उसका कुछ भाग खण्डित है। उसका मूल पाठ इस प्रकार पढ़ा गया है
"...तिसायनसुधा संद्धावमंद्रोदयः ॥१॥ दुर्वार प्रतिपक्षशक्तिविभवन्यग्भावभंगोद्गतस्वव्यापारमनारतं यदवृ................पद स्वाद्याकाररसानुरक्ति खचितं क्षोभभ्रमावर्तितं चित्तक्षेत्रनियंत्रितं महदणख्यात्यंकितं विनित त्यागादि.......तत् कोटस्थ्यं प्रतिपद्य वंदथ सदामुद्धि परां बिभ्रता ॥४॥
१. Annual Report of Indian Epigraphy-1956-57, P. 51, Ins. No. B 108. २. जैन सिद्धान्तभास्कर, भाग १, कि. ४, पृ. ५३ ।