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राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ सिद्धांतोदधिवीचिवद्धनस्त्रद्धंद्रोयितंद्रोधुना विख्यातोस्ति समग्रशुद्धचरितः श्रीधर्मव...यतिः । तत्कीतिः किल धीरवाढिनृपतिश्रीनारसिंहादिह स्वीकृत्य प्रकटीचकार सततं हमीरवीरोप्यसौ ॥४४॥ तच्चरणकमलमधुपे मानस्तंभप्रतिष्ठया मानम् । प्रकटीचकार भुवने धनिकः श्रीपूर्णसिंहोत्र ।।४५।।
यह शिलालेख अधूरा है, प्रारम्भके २० श्लोक नहीं हैं तथा बीच-बीचमें कुछ श्लोक अधूरे हैं, श्लोक संख्या २९ है ही नहीं श्लोक संख्या ३८ में एक चरण नहीं है। यह सब होनेपर भी इस लेखके महत्त्व और इसकी उपयोगितासे इनकार नहीं किया जा सकता। इस शिलालेखके उपलब्ध भागमें कीर्तिस्तम्भके निर्माता जीजु या जीजा अथवा जीजाक ( इनके ये तीन नाम मिलते हैं ) के पितामहसे इनका वंश-गौरव प्रकट किया गया है। जीजाके पितामह दिनाक थे, उनकी स्त्रीका नाम वाछी था। उन दोनोंके नायक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। इसने अनेक शिखरबद्ध जिनालयोंका निर्माण कराया। इसकी स्त्रीका नाम नागश्री था। इसके छह पुत्र हुए-हाल्ल, जीजु, न्योहल, असम, श्रीदुमार और स्थिर । इनमें जीजु बहुत धर्मात्मा था। इसने चित्रकूट (चित्तौड़) में चन्द्रप्रभ भगवान्का विशाल जिनालय बनवाया। और भी कई स्थानोंपर जिनालय बनवाये । इस सबके अतिरिक्त उसने इस मानस्तम्भ (कीर्तिस्तम्भ ) के निर्माणका प्रारम्भ करके इसको पूरा करनेकी जिम्मेदारी अपने पुत्र पूर्णसिंहके ऊपर सौंपकर समाधिमरण धारण कर स्वर्गवासी हुए । पूर्णसिंहका अपरनाम पुण्यसिंह भी था। जिम्मेदारी आनेके पश्चात् पूर्णसिंहको अनेक प्रतिकूल परिस्थितियोंका भी सामना करना पड़ा किन्तु उसने पिताके इस अधूरे स्वप्नको पूर्ण किया।
पुण्यसिंह ( पूर्णसिंह ) के धर्मगुरुका नाम भट्टारक विशालकीर्ति था। वे कुन्दकुन्दान्वय और सरस्वतीगच्छके थे। वे स्याद्वादविद्यापति कहलाते थे। वे वादी, उपन्यासके कर्ता और परवादियोंका गवं दलन करनेवाले थे। वे षडू दर्शनोंके पारगामी विद्वान् थे। इनके शिष्य भट्टारक शुभकीति हए । ये तपोनुष्ठानमें रत रहते थे। उनके समाधिमरणके पश्चात् उनकी गादीपर धर्मचन्द्र आसीन हुए। ये प्रकाण्ड विद्वान् थे। हमीर नरेश इनसे बड़े प्रभावित थे। मानस्तम्भ पूर्ण होनेपर पुण्यसिंहने भट्टारक धर्मचन्द्रसे प्रतिष्ठा करायी।
___इस शिलालेखसे यह तो स्पष्ट नहीं होता कि जीजा और पुण्यसिंह कहाँके निवासी थे, किन्तु इससे कुछ महत्त्वपूर्ण बातोंपर प्रकाश पड़ता है।
(१) जीजाने मानस्तम्भ ( कीर्तिस्तम्भ नाम न देकर लेखमें इसे मानस्तम्भ कहा गया है ) को बनवाना प्रारम्भ किया था, किन्तु उसे पूर्ण नहीं करा सका और उसकी मृत्यु हो गयी। स्तम्भका निर्माण कार्य जीजाके पुत्र पुण्यसिंहने पूर्ण कराया।
(२) इस स्तम्भकी प्रतिष्ठा भट्टारक धर्मचन्द्रने करायी। ये भट्टारक मूलसंघ बलात्कारगण, जिसका अपर नाम सरस्वतीगच्छ है, परम्पराके थे।
(३) यह स्तम्भ सम्भवतः प्रारम्भमें कीर्तिस्तम्भ नहीं कहलाता था, इसका निर्माण मानस्तम्भके रूपमें किया गया था। हमारी मान्यता है कि जीजा द्वारा चित्रकूटपर बनाये गये जिस चन्द्रप्रभ जिनालयका उल्लेख उक्त लेखमें मिलता है, उसी जिनालयके सामने यह मानस्तम्भ निर्मित कराया गया होगा।