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________________ ८८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ यह सात मंजिला है एवं शिल्पकलाका अनुपम उदाहरण है। इसके चारों कोनेपर तीर्थंकर आदिनाथकी दिगम्बर मूर्तियाँ खड्गासन ध्यान मुद्रामें ५ फुट अवगाहनाको स्थित हैं । इसके बाह्य भागमें जैन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । पाषाणोंके अलंकरण पारम्परिक हैं, जो उस कालमें हिन्दू और जैन दोनोंके स्थापत्यमें व्यवहृत होते थे। इनका शिल्प सौन्दयं पश्चात्कालीन जयस्तम्भसे कहीं उत्कृष्ट है।' इसको चौकोपर चढ़नेके लिए ६९ सीढ़ियां बनी हुई हैं। मि. गैरिकको ऊपरी मंजिलमें एक पंक्तिका शिलालेख मिला था, जिसकी लिपिसे ज्ञात होता है कि यह स्तम्भ जयस्तम्भको अपेक्षा काफी प्राचीन है। इस कीर्तिस्तम्भके ऊपरको छत्री बिजली गिरनेसे टूट गयी थी, जिससे इस स्तम्भको भी हानि पहुंची थी। परन्तु उदयपुरनरेश महाराणा फतहसिंहजीने अनुमानतः ८० हजार रुपये लगाकर पूनः वैसी ही छत्री बनवा दी और स्तम्भको भी मरम्मत करा दो। कोतिस्तम्भका निर्माता और निर्माण-काल इस कोतिस्तम्भके निर्माता और उसके निर्माण-कालके सम्बन्ध में कुछ ऐसे असन्दिग्ध प्रमाण प्राप्त हुए हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि इस स्तम्भका निर्माता साहू नायकका पुत्र साहू जीजा था। यह बघेरवाल जातिका एक देदीप्यमान रत्न था। साहू नायककी धर्मपत्नी नागश्रीसे छह पुत्र हुए थे-हाल्ल, जीजू, न्योट्टल, असम, श्रीकुमार और स्थिर । इनमें द्वितीय पुत्र जीजू बड़ा जैनधर्मपरायण था। उसकी रुचि जीव-दया, जिनालयोंके निर्माण और जीर्णोद्धार-जैसे कामोंमें अधिक थी। उसीने तीर्थक्षेत्रोंकी यात्राके पश्चात् इस कोतिस्तम्भका निर्माण कराया। उसकी धार्मिक रुचिका प्रमाण इससे अधिक क्या हो सकता है कि इस कीर्तिस्तम्भके अतिरिक्त उसने चित्रकूट (चित्तौड़) में भगवान् चन्द्रप्रमका विशाल शिखरबद्ध जिनालय बनवाया; तलहटी, खोहर, सांचोर, बूढ़ा डोंगर आदि स्थानोंपर भी जैन मन्दिर बनवाये । जीजूका पुत्र पुण्यसिंह हुआ। यह महाराणा हमीरका समकालीन था। शोध-खोजके परिणामस्वरूप कुछ ऐसे प्राचीन लेख और शिलालेख उपलब्ध हुए हैं, जिनसे इस कीर्ति-स्तम्भके निर्माता जीजूके सम्बन्धमें विशेष ज्ञातव्य बातोंपर प्रकाश पड़ता है। एक लेखे इस प्रकार है "स्वस्ति श्री संवत् १५४१ वर्षे शाके १४९१ प्रवर्तमाने कोधीता संवत्सरे उत्तरगणे मासे शुक्ल पक्षे ६ दिने शुक्रवासरे स्वातिनक्षत्रे योगे २ करणे मिथुनलग्ने श्री वराटदेशे कारंजानगरे श्री सुपाश्वनाथ चैत्यालये श्री मूलसंघे सेनगणे पुष्करगच्छे श्रीमन् वृद्धसेनगणधराचार्ये पारंपर्याद्गत श्री देववीर महावादवादीश्वर रायवादीर्यकी महासकल विद्वज्जन सार्वभौम साभिमान वादीभसिंहाभिनव त्रैविद्य सोमसेन भट्टारकाणामुपदेशात् श्रोबघेरवाल ज्ञाति खम उराडगोत्रे अष्टोत्तरशत महोत्तुंग शिखर प्रासाद समुद्धरणे धीरः त्रिलोकश्रीजिनमहाविबोद्धारक अष्टोत्तरशत श्रीजिनमहाप्रतिष्ठाकारक अष्टादशस्थाने अष्टादशकोरिश्रतभंडारसंस्थापक सपादलक्षवन्दीमोक्षकारक मेदपाटदेशे चित्रकूटनगरे श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्रचैत्यालयस्याग्रे निजभुजोपार्जितवित्तवलेन श्रोकीर्तिस्तम्भआरोपक साह जिजा सुत साह पूनसिंहस्य-साह देउ तस्य भार्यावूहतुकाइ तयोः पुत्राः चत्वारः तेषु प्रथम पुत्र साह लखमण भार्या वाई जसमाई सुत संघवी इसराज भार्या हाराई द्वितीय पुत्र सा. भीम तृतीय पुत्र संघवी वीकू भार्या संघविणि गौराई चतुर्थ पुत्र-मदे भार्या पदमाई तयोः सुताः १. Report of a tour in the Panjab and Rajputana, by H. B. W, Garrick, ___Vol. XXIII, page 117. २. नांदगाव जैन मन्दिरमें स्थित मतिका लेख ।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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