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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ मुद्रामें दो फुट अवगाहनाको है। इस मनोज्ञ मूर्तिके दर्शन करते ही उपस्थित सभी व्यक्तियोंका रोम-रोम हर्षित हो गया। सबने भगवान्का अभिषेक-स्तवन-पूजन किया। मूर्तिका समाचार चारों ओर फैल गया। भगवान्का दर्शन करनेके लिए वहां दूर-दूरसे लोग आने लगे। तब सेठजीने मन्दिर निर्माणका संकल्प किया और उसे बनवाना प्रारम्भ कर दिया। मन्दिरका निर्माण उसी स्थानपर किया गया, जहांसे मूर्ति प्रकट हुई थी। कुछ ही समयमें शिखरबन्द मन्दिर बनकर तैयार हो गया। सेठजीने वैशाख शुक्ला १० विक्रम संवत् १००७ को पंचकल्याणकपूर्वक भगवान् पाश्वनाथको मूर्तिको प्रतिष्ठा करायी। इस उत्सवमें साधर्मी जन हजारोंकी संख्यामें पधारे थे। ऐसा भी ज्ञात होता है कि सेठ नथमलजी की सेवाओं और जनकल्याणकारी कार्योंसे प्रसन्न होकर मेवाड़ नरेशने उन्हें 'राजभद्र' की उपाधि प्रदान की थी। यही उपाधि बादमें राजभद्रा कहलाने लगी। सेठजी राजमान्य थे, यह तो ज्ञात होता है किन्तु उन्हें यह राजमान्यता मन्दिर-प्रतिष्ठाके पश्चात् प्राप्त हुई अथवा उससे पूर्व में थी, यह ज्ञात करनेका कोई साधन नहीं है। ___ इस मन्दिरका नाम पहले चूलेश्वर रहा है, ऐसा पुराने लेखोंसे पता चलता है। बादमें चलेश्वरसे चंवलेश्वर कैसे बन गया, इस बातका कोई उल्लेख देखने में नहीं आया। सम्भवतः चूलेश्वरसे ही बिगड़ते-बिगड़ते चंवलेश्वर बन गया। क्षेत्र-दर्शन क्षेत्र छोटी-सी पहाड़ीपर है। इसके ऊपर जानेके तीन दिशाओंसे मार्ग हैं। पूर्वको ओर २५६ पक्की सीढ़ियां बनी हुई हैं । उसके बाद एक छतरी बनी हुई है जो यात्रियोंके विश्रामके लिए बनायी गयी प्रतीत होती है। इसके बाद दो फलाँगका कच्चा मार्ग है। रास्तेमें एक पक्का तिवारा पड़ता है। इसमें पानीका एक कुण्ड है, जिसमें बारहों महीने जल भरा रहता है। भगवान्के अभिषेकके लिए यहींसे जल ले जाया जाता है। इस स्थानको 'तिवारा खान' कहते हैं। कच्चे रास्तेको पार करके पुनः ११० पक्की सीढ़ियां हैं। मन्दिरका शिखर बहुत दूरसे दिखाई पड़ता है । उसके आकर्षणसे खिचा हुआ भक्त यात्री थकानका अनुभव नहीं करता। सीढ़ियां चढ़नेपर समतल भूमि मिलती है, जिसपर मन्दिरका परकाटा बना हुआ है। परकोटेके अन्दर प्रवेश करनेपर मैदान आता है। उसके मध्यमें मन्दिर बना हुआ है । मन्दिरके द्वारके ऊपरी भागमें पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा बनी हुई है, जिसे देखते ही अनुभव हो जाता है कि वह जैनमन्दिर है । मन्दिरमें प्रवेश करनेपर छोटा चौक मिलता है । इसमें मकान बने हुए हैं। पश्चिमकी ओर एक छतरी बनी हुई है, जिसमें पाषाणके चरणयुगल विराजमान हैं । बादमें मण्डप मिलता है। फिर मोहन-गृह मिलता है। मोहन-गृहके प्रवेश-द्वारके सिरदलपर तीन तीर्थंकर प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। मध्यमें पद्मासन और उसके दोनों ओर खड़गासन । वेदी एक ही है। उसपर मूलनायक भगवान् पाश्वनाथ विराजमान हैं। इनके दायों ओर भव्य चौबीसी है। वेदोके चारों ओर परिक्रमा-पथ है। मन्दिरके निकट ही मसजिद है और उसके पास ही महादेवजीकी छतरी है। लगता है, मसजिदका निर्माण मन्दिर-निर्माताने आततायियोंसे सुरक्षाको दृष्टिसे कराया था। किन्तु तथाकथित महादेव छतरी पहले केवल छतरी ही थी, शिवपिण्डी बहुत आधुनिक है और छतरी खाली देखकर उसमें यह रख दी गयी है। सुविधाके लिए इसे फिर महादेवकी छतरी कहने लगे। मन्दिरके पीछे छोटी-सी धर्मशाला है।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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