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राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्रपर उपसर्ग
इस मन्दिर तथा अन्य चार देवरियोंका निर्माण श्रेष्ठी लोलार्कने कराया था। इस बातकी पुष्टि यहाँके शिलालेखसे होती है। इस मन्दिरपर स्वामित्व सदासे दिगम्बर जैन समाजका रहा है । सम्पूर्ण क्षेत्रपर अन्य किसी धर्म या सम्प्रदायसे सम्बन्धित कोई मूर्ति या तत्सम्बन्धी लेख नहीं है। इतना होनेपर भी कभी-कभी कुछ असामाजिक और कलहप्रिय तत्त्व निराधार और तर्कहीन उपद्रव खड़ा कर देते हैं। क्षेत्रपर इस प्रकारके दो उपद्रव कुछ वर्षों के भीतर हो चुके हैं। प्रायः दिगम्बर जैन क्षेत्रोंपर श्वेताम्बर-दिगम्बर समाजमें झगड़े चलते रहते हैं। दिगम्बर जैन समाज में जिस क्षेत्रको मान्यता अधिक होती है, उसके ऊपर श्वेताम्बर जैन समाज अपना अधिकार जताने लगती है, भले ही श्वेताम्बर समाजमें उस क्षेत्रको मान्यता हो या न हो । किन्तु इस क्षेत्रपर जैनेतर समाजके एक वर्गने ऐसे उपद्रव किये, जिसको मिसाल अन्यत्र कम मिलेगी।
पहला उपद्रव संवत् १९८५ में हुआ। इस वर्गने आरोप लगाया कि जैनोंने इस क्षेत्रपर महादेवजीकी मूर्ति उखाड़ फेंकी है और हमारे देवताका अपमान किया है। इस निराधार और मिथ्या आरोपमें इस वर्गने फौजदारी मुकदमा चलाया और जैन समाजके अनेक प्रमुख और प्रतिष्ठित व्यक्तियोंको इसमें अभियुक्त बनाया। किन्तु असत्यके पैर नहीं होते। अदालतमें जाकर यह असत्य आरोप नहीं चल पाया और निराधार होनेसे खारिज हो गया।
अपनी असफलतासे यह वर्ग क्षुब्ध हो उठा और अवसरकी तलाशमें रहा। संवत् २०११में श्री भंवरलाल हीरालालजी सेठियाकी भावना पंचकल्याणक प्रतिष्ठापूर्वक एक विशाल मूर्तिकी स्थापना करानेकी हुई। स्थानीय समाजने निकटवर्ती सभी स्थानोंके जैन समाजसे परामर्श करके पंचकल्याणक प्रतिष्ठाकी अनुमोदना कर दी तथा जैनेतर समाजसे इस धार्मिक कार्यमें सहयोग देनेका अनुरोध किया। पहले तो हिन्दू समाजके सम्मानित और सभ्य लोगोंने सहयोग देना प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया, किन्तु बादमें उपर्युक्त असामाजिक तत्त्वोंके दबावमें आकर उन्होंने अस्वीकार कर दिया। इतना ही नहीं, उन तत्त्वोंने अदालतसे स्टे आर्डर लेकर मूर्ति विराजमान करनेके विरुद्ध निषेधाज्ञा प्राप्त कर लो और दूसरी ओर जैन समाजसे असहयोग करनेका ऐसा आन्दोलन किया जिसका उद्देश्य अल्पसंख्यक जैन समाजको उसके नागरिक और धार्मिक अधिकारोंसे वंचित करके उसके धर्मायतनोंपर अधिकार करना था। इन तत्त्वोंने घरेलू कामगरों और ग्राहकोंपर कानून विरुद्ध हथकण्डे अपनाकर अनुचित दबाव डाला। फलतः हिन्दू ग्राहकोंने जैनोंकी दुकानोंसे सामान लेना छोड़ दिया, घरेलू काम करनेवालोंने कामकाज बन्द कर दिया, पानी भरनेवालोंने जैनोंका पानी भरना छोड़ दिया, ढोर चरानेवालोंने जैनोंके ढोर चराना बन्द कर दिया। इसी प्रकार नाई, धोबी, दर्जी, चमार आदिने इस वर्गके अनुचित दबावमें आकर जैनोंके साथ असहयोग करना शुरू कर दिया। इस वर्गने हिन्दू जनतामें धार्मिक उन्माद और साम्प्रदायिकताका भयानक विष फैला दिया। जब स्थानीय हिन्दू जनताका नेतृत्व इस वर्गके हाथमें आ गया तो इसने अबोध और निरीह हिन्दू जनतामें गलत अफवाहें फैलाकर और उसमें धार्मिक उत्तेजना भरके उसे मनमाने ढंगसे लटा। इस असामाजिक वर्गका मख्य उद्देश्य यही था। दूसरी ओर न्यायालयमें केस चलता रहा। मुकदमा क्रमशः सिविल, सैशन और हाईकोर्ट तक चला और सब जगह इस कलहप्रिय वर्गने मुंहकी खायी । नीरक्षीर-विवेकशील न्यायालयके जजोंने सत्यको उजागर करके जैनोंके पक्षमें निर्णय दिये। इन निर्णयोंसे यह सिद्ध हो गया कि जैन समाज अत्यन्त शान्तिप्रिय, सहिष्णु और न्यायनीतिपरायण समाज है। इन उपद्रवोंने यह भी प्रमाणित