SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 100
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजस्थानके दिगम्बर जैन तीर्थ ७३ इस अतिशयकी यह कथा परम्परासे लोगों में प्रचलित है और यह वहाँके लोक-गीतों में सुनाई पड़ती है । संवत् १९५८ में एक और विस्मयकारक चमत्कार हुआ। ऐसा कहा जाता है कि उस समय क्षेत्रमें मूलनायक प्रतिमाको न देखकर लोगोंके मनमें नाना प्रकारकी शंकाएँ थीं। तब एक सम्भावना यह भी प्रकट की गयी कि भूगर्भ में कोई गुप्त भवन हो और प्रतिमा वहाँ विराजमान हो। यह बात यहाँ राजा कृष्णसिंहको ज्ञात हुई। उन्होंने आदेश दिया कि भूमि खुदवाकर उस गुप्त स्थान प्रतिमा निकलवाओ। समस्त पंच और अन्य लोग जैन मन्दिर में पहुँचे । वहाँ मन्दिरमें एक पाषाणपर 'सोपान' शब्द लिखा हुआ देखा। उन्होंने उस पाषाणको उखड़वाया और वहांकी भूमिको खुदवाने लगे । किन्तु भूमि नहीं खुदी । तभी अकस्मात् एक भयंकर श्वेत नाग दक्षिण द्वारसे आया और जिस स्थानपर मजदूर जमीन खोद रहे थे, वहाँ आकर बैठ गया और फुंकारने लगा । सब लोग भयभीत होकर चले गये । इस क्षेत्रके चमत्कारों की ऐसी अनेक कथाएँ इस प्रदेशमें बहुप्रचलित हैं । अनेक लोग भक्तिभावसे यहां मनोती मनाने आते हैं । शिलालेख प्रथम शिलालेख (१) सिद्धम् ॥ ॐ नमो वीतरागाय ॥ चिद्रूपं सहजोदितं निरवधि ज्ञानैकनिष्ठापितं । नित्योन्मीलित मुल्लसत्परकलं स्यात्कारविस्फारितं ( तम् ) [ ] सुव्यक्तं परमाद्भुतं शिवसुखानन्दास्पदं शास्त्र (श्व ) तं । नौमि स्तौमि जपामि यामि शरणं तज्ज्योतिरात्मा [त्थि ] तं (तम् ) ॥ १ ॥ नास्तं गतः कुग्रहसंग्रहो न । नो तीव्र तेजा............ (२) [a]: 1 नैव सुदुष्ट देहोऽपूर्वी रवि स्तात्समुदे - वृषो वः ॥ २ ॥ [स] भूयाच्छ्रीशांति : शुभविभवभंगीभवभृतां । विभोर्यस्याभाति स्फुरितनखरोचिः करयुगं ( गम् ) । विनम्राणामेषामखिलकृतिनां मंगलमयीं । स्थिरीकत्तं लक्ष्मीमुपरचितरज्जु व्रजमिव ||३|| नाशा ( सा ) स्वा ( श्वा ) सेन येन प्रबलबलभृता पूरित: पांचजन्यः (३) -- वरदलमलि [नी पाद ] पद्माग्रदेशैः । हस्तांगुष्ठेन शांग्गं (शाङ्गं) घ (ध) नुरतुलव (ब) लं कृष्टमारोप्य विष्णो । रंगुल्यां दोलितोयं हल भृदवनितं तस्य मेनोमि ॥ ४ ॥ प्रांशु प्रकारकांता त्रिदश परिवृढव्यूह (रु) रुद्धावकाशां । वाचाला केतुकोटि [ क्व ] दनणुमणी किंकिणीभिः समंतात् । यस्य व्याख्यानभूमि महह किमिदमित्याकुलाः कौतुकेन प्रेक्षंते प्राणभाजः (४) [ स भु] [वि] विजयतां तीर्थकृत्पार्श्वं ( व ) नाथः ॥ ५ ॥ वर्द्धतां वर्द्धमानस्य वर्द्धमान महोदयः । वर्द्धतां वर्द्धमानस्य वर्द्धमान [ मह ] दयः || ६ || सारदां सारदां स्तौमि सारदानविसारदां (दाम् ) । भारतीं भारतीं भक्तभुक्ति मुक्ति विशारदां ( दाम् ) ॥ ७ ॥ निः प्रत्यूहमुपास्महे जिनपतीनन्यानपि स्वामिनः । श्रीनाभेय पुरस्सरान् पर कृपापीयूषपाथोनिधीन् । ये ज्ज्यो (ज्यो) तिः परभाग भाज (५) न तया मुक्तात्मतामा [श्रि ] ताः श्रीमन्मुक्ति नितंवि ( बि ) नीस्तनतटे हारश्रियं वि (बि) भ्रति ॥ ८॥ भव्यानां हृदयाभिरामवसतिः सद्धम्मं [म] [ ] स्थितिः कम्र्मोन्मूलनसंगतिः सु (शु) भततिः निर्व्वा (ब्र्बा ) धवो (बो) धोद्धतिः [ ] जीवानामुपकारकारणरतिः १०
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy