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________________ ७० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ - आगे चलनेपर एक तालाब मिलता है जिसको पापहारिणी कहते हैं। निश्चय ही उसे यह नाम भगवान् वासुपूज्यके कारण मिला है । मकर संक्रान्तिके दिन यहाँ वैष्णव लोगोंका मेला भरता है जो १५-२० दिन तक रहता है । सब लोग इस सरोवर में स्नान करते हैं। इन दिनों सभी लोग पर्वतके ऊपर वासुपूज्य स्वामीकी चरण-वन्दना करने जाते हैं। आसपासके प्रदेशमें जैनेतरोंमें भी वासुपूज्य स्वामीकी मान्यता उसी प्रकार बहप्रचलित है. जिस प्रकार सम्मेदशिखरके आसपासकी जनतामें पारसनाथकी मान्यता है। पापहारिणी सरोवर पहाड़ीकी तलहटीमें है। इस तालाबको आदित्यसेनकी रानी कोनादेवीने बनवाया था। हर्षवर्धनकी मृत्युके बाद कन्नौज राज्य छिन्न-भिन्न हो गया था। इस अराजकताका लाभ उठाकर आदित्यसेन सातवीं शताब्दीमें मगधका शासक बन बैठा था। इससे ज्ञात होता है कि अंग अब भी मगधके अधिकारमें था। सरोवरसे आगे बढ़कर पहाड़ीपर कई प्राकृतिक कुण्ड बने हुए हैं, जिनके नाम हिन्दुओंने सीताकुण्ड, शंखकुण्ड आदि रख रखे हैं। पहाड़ीकी चढ़ाई एक मीलसे कुछ अधिक पड़ती है। चढ़नेके लिए पर्वतको काटकर कुछ सीढ़ियाँ बनायी गयी हैं । पहाड़ीके शिखरपर बड़ा दिगम्बर जैन मन्दिर है । इसके गर्भगृहके द्वारके ऊपर पद्मासन प्रतिमा बनी हुई है। गर्भगृहमें एक गज ऊँची चबूतरानुमा वेदीपर वासुपूज्य भगवान्के प्राचीन चरण विराजमान हैं। श्री लक्ष्मण वासुदेव कारवाणे दि. जैन सांगली निवासीने सं. १९५७ में वेदीका जीर्णोद्धार कराया। गर्भगृहकी दीवाल साढ़े तीन हाथ चौड़ी है। मन्दिर बहुत प्राचीन है। यह अनुमानतः १००० वर्ष या उससे भी प्राचीन होना चाहिए। मन्दिरके ऊपर डबल शिखर है अर्थात् एक शिखरके ऊपर दूसरा शिखर बना हुआ है । शिखरके चारों ओर स्तूपाकार चार चैत्य बने हुए हैं। उनमें मूर्ति नहीं हैं। बड़े मन्दिरके निकट शिखरबन्द छोटा मन्दिर है। इसमें तीन प्राचीन चरण-युगल बने हुए हैं। सेठ मथुरादास पदमचन्द आगराने वि. संवत् १९८५ में इसकी वेदीका जीर्णोद्धार कराया था। मन्दिरके द्वारपर जैन प्रतिमा थी, किन्तु वह तोड़ दी गयी। उसका स्थान बना हुआ है। इस मन्दिरके चबूतरेके नीचे एक कुण्ड बना हुआ है जो सम्भवतः मन्दिरके निर्माणके समय जलके लिए बनाया गया होगा। किन्तु अब लोग उसे आकाशगंगा कहते हैं। छोटे मन्दिरसे जरा-सा आगे बढ़नेपर एक शिलाके नीचे चरण बने हुए हैं । यह विशाल शिला इस प्रकार रखी हुई है जिससे छोटी सी खली हई गफा बन गयी है। इस गफाका जीर्णोद्धार श्री लक्ष्मीबाई अग्रवालकी ओरसे श्रीरामचन्द्र धर्मचन्द्र जैनने वि. संवत् २४९१ में कराया गया। पहाड़ीके नीचे चीर और जमुनिया नामकी दो छोटी-छोटी बरसाती नदियाँ हैं जो कुछ आगे जाकर मिल गयी हैं। यह पहाड़ी पहले सम्बलपुरके जमींदारोंके अधिकारमें थी। इससे क्षेत्रपर बड़ी अव्यवस्था रहती थी। क्षेत्र उस समय तक विशेष प्रकाशमें भी नहीं आया था। अतः यात्रियोंका आवागमन भी बहत कम था। क्षेत्रकी दुर्दशा देखकर भागलपुरके एक उत्साही धर्मात्मा सज्जन बा. हरनारायणजीने क्षेत्र सम्बन्धी सारी जानकारी सन् १९११ में भारतीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी बम्बईको दी। कमेटीने फौरन अपने एक इन्स्पेक्टरको सम्बलपुरके जमींदारोंसे मिलनेके लिए भेजा । इन्स्पेक्टरने उन जमींदारोंसे मिलकर क्षेत्रकी व्यवस्था और जीर्णोद्धारकी अनुमति माँगी। किन्तु उन्होंने अनुमति नहीं दी, बल्कि मनमानी माँगें उनकी ओरसे पेश हुईं। क्षेत्रपर १. Corp. Inscription Ind. Vol. III, P. 201.
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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