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बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ दिगम्बर जैन समाजका अधिकार किस प्रकार हो, इसकी चिन्ता बराबर बनी रहती थी। उस समय बा. सखीचन्दजी कैसरे हिन्द उस प्रान्तके जनरल पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट थे। कमेटीने इस मामलेमें उनसे सम्बन्ध स्थापित किया और लिखा-पढ़ी की। बा. हरनारायणजी भी उनसे मिले। तब बड़े प्रयत्नोंके बाद वे जमींदार पर्वतके मन्दिरोंकी रजिस्ट्री उक्त क्षेत्र कमेटीके नाम करनेको राजी हुए और २० अक्तूबर १९११ को पहाड़के मन्दिरों आदिकी रजिस्ट्री उक्त क्षेत्र कमेटीके नाम करा ली गयी। इस प्रकार इस क्षेत्रपर दिगम्बर जैन समाजका अधिकार हो गया। आजकल क्षेत्रको व्यवस्थाका सारा कार्य भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी बम्बईकी ओरसे बिहार प्रान्तीय दिगम्बर जैन तीर्थ कमेटी करती है।
मन्दारगिरिके सम्बन्धमें मि. वैगलरने लिखा है कि पहाड़के ऊपरकी रचना श्रावकों या जैनियोंसे सम्बन्धित है। यहाँ एक कमरे में चरण विराजमान हैं।
पहाड़के ऊपर तथा नीचे तलहटीमें मकानोंके अवशेष बिखरे पड़े हैं। ये अवशेष चोल राजाओं-विशेषतः छत्रसिंह राजाके कालके हैं।
क्षेत्रपर सम्बलपुरके जमींदारोंका अधिकार कबसे, कितने वर्ष रहा, यह तो ज्ञात नहीं है किन्तु उन्होंने अपने अधिकार-कालमें पर्वतपर कई स्थानोंपर नरसिंह, वामन, ब्रह्मा, विष्णु, महेश
और हिन्दू देवियोंकी मूर्तियाँ खुदवा दी और हिन्दुओंमें यह विश्वास प्रचलित कर दिया कि विष्णुने वासुकिको जिस मन्दराचलसे लपेटकर उसकी रई बनायी और समुद्र-मन्थन किया, वह मन्दर पर्वत यही है। इसके लिए पर्वतपर वासुकि नागकी रगड़के निशान भी बड़े कौशलसे खुदवा दिये।
हिन्दू शास्त्रोंमें समुद्र-मन्थनका वर्णन मिलता तो इसी रूपमें है। उनमें कहा है कि अमृतकी इच्छासे देवों और दैत्योंने समुद्र-मन्थन करनेके लिए परस्परमें सन्धि कर ली। वासुकि नागको भी अमृतका कुछ भाग देनेका आश्वासन देकर उसे नेति (रस्सी) बननेके लिए तैयार कर लिया। मन्दराचलको मथानी (रई) बना। भगवान् विष्णुने कच्छपका रूप धारण करके मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण कर लिया। दैत्य और असुरोंने वासुकिको मुखकी ओरसे पकड़ा
और देवताओंने उसे पूँछकी ओर से पकड़ा। समुद्रमें मथानी चलने लगी। उससे चौदह रत्न निकले-विष, कामधेनु, उच्चैःश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, अप्सराएँ, लक्ष्मी, वारुणीदेवी, अमृत आदि।
पुराणोंकी इस कथासे इतना ही पता चलता है कि मन्दराचलको मथानी बनाया गया था। किन्तु मन्दराचल कौनसा है, यह निर्णय करना शेष है।
वाराहपुराण में बताया है कि मन्दर गंगाके दक्षिणमें स्थित है और विन्ध्याचलकी शृंखलामें है। यह गढ़वालमें सुमेरुके उत्तरमें हिमालय पर्वतका एक भाग है।
महाभारत ( अनुशासन पर्व अ. १९) हिमालय शृंखलाके अलावा और दूसरा मन्दराचल नहीं मानता। कुछ पुराणोंमें बदरिकाश्रम जिस पर्वतपर है तथा जिसपर नर-नारायणका मन्दिर है, उसे मन्दराचल बताया है। किन्तु महाभारत ( वनपर्व अ. १६२-१६४ ) में बताया है कि मन्दर पर्वत पूर्व में है। वह गन्धमादनका एक भाग है और बदरिकाश्रमके उत्तर में है।
१. Archaeological urvey of India, Vol. Viii। २. Martin's Eastern India, Vol. II asbihari Bose's, Mandar Hill in Ind. Ant. 1, p. 46। ३. कूर्मपुराण ११, वामनपुराण अ. ९० । श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ८, अ, ६।९। ४. वराहपुराण, अ. १४३ ।