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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थं
अँगरेजी टोपी हो । नीचे बैलका लांछन है । दो स्त्री-पुरुष भक्तिमें हाथ जोड़े खड़े हैं। इधर-उधर पीछी और कमण्डल रखे हैं । प्रतिमाके दोनों ओर चँवरवाहक खड़े हैं। सिरके ऊपरी भागमें दोनों ओर पारिजात पुष्पोंकी माला लिये गगनचारी दो देव हैं ।
इस प्रतिमा दायीं ओर दो फुट अवगाहनावाली श्याम वर्णकी ऋषभदेव प्रतिमा है । सिरपर जटाजूट है । नीचे एक स्त्री बालकको गोदमें उठाये हुए है । सम्भवतः यह यक्षिणी है । उसके एक ओर हाथी और दूसरी ओर बैल बने हुए हैं। सिरके दोनों ओर पारिजात पुष्पमाल लिये दो देवियाँ हैं । ऊपर छत्रत्रयी है। छत्रोंके नीचे तथा दायें-बायें आठ मूर्तियाँ बनी हुई हैं ।
इसके पासमें एक बादामी वर्णकी ऋषभदेवकी खड्गासन प्रतिमा है । इसकी अवगाहना लगभग साढ़े तीन फुट है । नीचे वृषभका चिह्न है । सिरपर पगड़ीनुमा जटाजूट है। नीचे धर्मचक्र है ।
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इस वेदीमें श्याम वर्णकी एक चौबीसी है तथा तीन मूर्तियाँ क्रमशः श्वेत, श्याम और हलकी गुलाबी सं. २४८०, १५९५ और सं. २४८० की हैं।
इन सभी प्रतिमाओं को निर्माण शैली और भावाभिव्यंजना, इनका शिल्प-विधान और इनका पाषाण खुरदुरा है । पाषाणको देखकर हुआ होगा । जिस मन्दिरमें ये प्रतिमाएँ पहले
कलापक्ष सभी अत्यन्त समृद्ध और प्रभावक हैं। विश्वास होता है कि इनका निर्माण कुषाण कालमें विराजमान थीं, वह बहुत प्राचीन था ।
इस मन्दिरके बगल में छोटा मन्दिर है । इसमें रक्तवर्णकी वासुपूज्य स्वामीकी एक फुट उत्तुंग पद्मासन प्रतिमा विराजमान है । एक शिलाफलकमें २४ चरण बने हुए हैं जो २४ तीर्थंकरोंके हैं । क्षेत्र - मन्दिर के सामने एक विशाल कम्पाउण्ड में एक मन्दिर है जो छपरावालोंका बीसपंथी मन्दिर कहलाता है । इस मन्दिर में मूलनायक वासुपूज्यकी प्रतिमा श्यामवर्ण ४ फुट अवगाहना, पद्मासनवाली है जो सं. १९४७ में प्रतिष्ठित हुई है। इसके अलावा ४ श्वेत पाषाणकी, २ गुलाबी पाषाणकी तथा २३ धातुकी प्रतिमा हैं। एक प्राचीन चरण चम्पानालेके मन्दिरसे लाकर यहाँ विराजमान किये गये हैं और एक नवीन चरण हैं । वायीं ओर पद्मावतीकी मूर्ति है ।
चम्पानालेका मन्दिर यहाँसे लगभग डेढ़ मील है । यह प्राचीन मन्दिर था । किन्तु जब भूकम्पमें मन्दिर गिर पड़ा तो दिगम्बर समाजने अपनी मूर्तियाँ लाकर नाथनगर मन्दिर में विराजमान कर दीं। बाद में श्वेताम्बर समाजने मन्दिरका पुनः निर्माण कराकर उसे अपने अधिकार में ले लिया । मन्दिर सुन्दर बना है ।
इसके निकट कर्णगढ़ है । वर्तमान में गढ़ तो नहीं, मिट्टीका एक टीला है । कहते हैं, महाभारत-कालमें हुए महाराजा कर्णका गढ़ यहीं पर था । इस किले के उत्तरमें जैनमठ या मन्दिर है । यदि खुदाई की जाये तो इस क्षेत्रमें काफी प्राचीन जैन सामग्री उपलब्ध हो सकती है ।
पहले गंगा नगरसे लगी हुई बहती थी, किन्तु अब लगभग एक मील हट गयी है ।
गंगा-तटपर पथारघाटी पर्वत है, जिसे चौरासीमुनि कहते हैं । इस पहाड़पर चार-पाँच गुफाएँ हैं तथा पहाड़ उत्तरकी ओर ७-८वीं शताब्दीकी चित्रकारी है । जुंगीरा पहाड़ीपर प्राचीन शिलालेख तथा जैन तीर्थंकरोंके चिह्न मिलते हैं ।
वार्षिक मेला
क्षेत्रपर कोई उल्लेख योग्य मेला नहीं भरता । भाद्रपद शुक्ला १४ को वासुपूज्य स्वामीके निर्वाणके उपलक्ष्यमें निर्वाणलाडू चढ़ता है।