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________________ ६७ बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ इस मुख्य मन्दिरमें वेदी चार मोटे स्तम्भोंपर आधारित है। मूलनायक भगवान् वासुपूज्य मूंगा वर्णके साढ़े तीन फुट ऊँचे और संवत् १९०४ में प्रतिष्ठित हैं। इसके अलावा ३ धातु प्रतिमाएँ और १ चरण हैं। चारों कोनोंपर चार मन्दरियाँ बनी हुई हैं। दक्षिण-पश्चिम मन्दरीमें भगवान् वासुपूज्य श्वेतपाषाण, पद्मासनमें विराजे हैं। आगे सहस्र फणावलि युक्त भगवान् पार्श्वनाथकी मूर्ति है जो सं. १७४५ में प्रतिष्ठित हुई है। १ धातुमूर्ति है। पूर्वकी वेदीमें भगवान् वासुपूज्य, जिनकी अवगाहना पौने दो फुट है, १० धातु प्रतिमाएँ तथा ३ पाषाण प्रतिमाएँ विराजमान हैं। इनमें २ प्राचीन हैं । एक प्रतिमाके साथ गोमेद यक्ष और अम्बिका यक्षिणी बैठी है। यक्षिणीकी गोदमें एक बालक है। दूसरा बालक खड़ा है । ऊपर नेमिनाथ विराजमान हैं । दूसरी प्रतिमा खड्गासन है। __उत्तर-पूर्वकी वेदीमें भगवान् वासुपूज्यके अतिरिक्त एक पाषाण प्रतिमा तथा ७ धातु प्रतिमाएँ हैं, जिनमें ३ तो चौबीसी हैं तथा एक प्रतिमा तीन चौबीसी की है। दक्षिण-पूर्वकी वेदीमें भगवान् वासुपूज्य तथा १ धातु और १ पाषाण प्रतिमा है। पुराने सरकारी कागजातोंमें मन्दिरका यह स्थान चम्पापुर राघोपुर टेकरेके रूपमें दर्ज है। इन कागजातोंके अनुसार यह मन्दिर ९०० वर्ष प्राचीन है। इस बातको सिद्ध करनेवाले कागजात अभी तक नाथनगरके स्व. मालजीके घरपर मौजूद हैं। उक्त ब्राह्मण चान्दबाई ब्राह्मणीका वंशज कहा जाता है, जिसे मुगल सम्राट शाहजहाँने राखो बाँधनेके उपलक्ष्ममें अपनी धर्म-बहन मान लिया था और निर्वाह के लिए आसपासका समूचा इलाका दे दिया था। इससे सम्बन्धित शाही हुक्मनामा अब उक्त ब्राह्मणके स्वर्गवास हो जानेके बाद उसके दामादके पास बताया जाता है। अबतक इस मन्दिरकी तथा कर्णगढ़के नीचेवाले मनकामनानाथके मन्दिरकी सारी चढ़ोतरी " (चढ़ावा ) वही ब्राह्मण लेता रहा था। इस मन्दिर के पीछे एक मन्दिर और है जो सेठ घनश्यामदास सरावगी द्वारा सं. २००० में बनवाया गया था। इसमें विराजमान प्रतिमाएँ पुरातत्त्व और कलाकी दृष्टिसे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इन मूर्तियोंपर कोई लेख नहीं है, लांछन अवश्य है। मूर्तिलेख न होनेसे जन सामान्यमें यह धारणा प्रचलित है कि ये मूर्तियाँ चतुर्थ कालकी ( भगवान् महावीरके समकालीन अथवा उनसे प्राचीन ) हैं। किन्तु कुछ लोगोंमें यह धारणा भी बहुप्रचलित है कि ये मूर्तियाँ उपरिलिखित और ईसा पूर्व ५४१ में निर्मित वासुपूज्य स्वामीके मन्दिर की हैं। इसलिए ये भी उतनी ही प्राचीन हैं, जितना कि वह मन्दिर। इसके विरुद्ध दूसरी धारणा भी है और जो तथ्योंके अधिक निकट लगती है। वह यह है कि ये प्रतिमाएँ पहले चम्पानालेके मन्दिरमें विराजमान थीं जो यहाँसे लगभग डेढ़ मील दूर है। यह मन्दिर भी अत्यन्त प्राचीन था और दिगम्बर-श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंका सम्मिलित मन्दिर था। नीचे श्वेताम्बर मन्दिर था और ऊपर दिगम्बर समाजका । भूकम्प आनेसे मन्दिर धराशायी हो गया। किन्तु प्रतिमाओंको कोई हानि नहीं पहुंची। तब वे प्रतिमाएँ यहाँ लाकर विराजमान कर दी गयीं। इन प्रतिमाओंमें कई प्रतिमाएँ भगवान् आदिनाथकी हैं जो अत्यन्त प्रभावपूर्ण और कलात्मक हैं। मुख्य प्रतिमा या मूल नायक प्रतिमा सलेटी वर्ण पाषाणकी पद्मासनमें पीठ सहित चार फुट अवगाहनावाली है। पीठपर दो बैलोंका लांछन है। जटाएँ वँधी हुई पीछेकी ओर लहरा रही हैं। सिरके ऊपर पाषाणमें तीन छत्र बने हुए हैं। सिरके इधर-उधर दो यक्ष बने हुए हैं। मूलनायक प्रतिमाके बायीं ओर ऋषभदेवकी एक दूसरी प्रतिमा है। यह भी श्याम वर्णकी है। इसकी अवगाहना डेढ़ फुट है। इसका जटाजूट बड़ा अद्भुत है, लगता है जैसे धारीदार ऊँची
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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