SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ अभियानकी तैयारी करता रहा । यहाँसे तथा पाटलिग्रामके दुर्गसे अभियान करके उसने वैशाली - पर विजय भी प्राप्त की । इस विजयका परिणाम यह हुआ कि वैशालीके नो, और मल्लोंके नौ गणराज्यों का ध्वंस हो गया । वे बिलकुल निःशक्त निर्बल हो गये । अजातशत्रुके लिए चम्पाका दूसरा महत्त्व आर्थिक दृष्टिसे था । भौगोलिक दृष्टिसे यह सुदूर पूर्वके व्यापारका मुख्य द्वार था । यहाँसे ताम्रलिप्ति होते हुए सुवर्णद्वीप तक व्यापार पोत चलते थे । चम्पाकी समृद्धिका मुख्य कारण यही था । चम्पापर अधिकार करनेका अर्थ था समृद्धि के स्रोतोंपर अधिकार । अजातशत्रुने इन स्रोतोंपर अधिकार करके मगधको खूब समृद्ध किया । जिन दिनों अजातशत्रु चम्पामें रहकर शासन- सूत्रका संचालन कर रहा था, उन दिनों । एक बार गणधर सुधर्मा स्वामी चम्पा पधारे। भगवान् महावीर और गौतम गणधरको निर्वाण प्राप्त हो चुका था । अब जैन संघके नेता सुधर्मं केवली थे। जैसे ही अजातशत्रुने केवली भगवान् के आगमनका समाचार सुना, वह नंगे पाँवों उनके दर्शनोंके लिए गया । उसके पुत्र उदायिने चम्पासे हटाकर पाटलिपुत्रको अपनी राजधानी बनाया । यहाँ भगवान् वासुपूज्यकी मान्यता बहुत प्राचीन कालसे चली आ रही थी । इसलिए वासुपूज्य तीर्थंकरके मन्दिर और मूर्तियाँ भी अति प्राचीन काल में यहाँ पर थीं, ऐसे प्रमाण उपलब्ध होते हैं । यहाँ जयपुर सरदार संघवी श्रीदत्त और उसकी पत्नी संघविन सुरजयीने युधिष्ठिर सं. २५५९ (ई.पू. ५४१) में भगवान् वासुपूज्यका एक मन्दिर बनवाया था । ऐसी अनुश्रुति है कि नाथनगर में जो दिगम्बर जैनमन्दिर है, यह वही पूर्वोक्त मन्दिर है । क्षेत्र-दर्शन भागलपुर शहरमें कोतवालीके पास दिगम्बर जैन मन्दिर और धर्मशाला है । यहाँ से नाथनगर - जहाँ चम्पापुरी क्षेत्र है-लगभग तीन मील है और शहरके बाहरी अंचल में है । यहाँ arth लिए साइकिल-रिक्शे, स्कूटर और ताँगे मिलते हैं । । नाथनगर की सड़क बायीं ओर लगभग एक फर्लांग कच्चे मार्गंसे दिगम्बर जैन धर्मशाला और उसके अन्दर मन्दिर है । धर्मशालाका गजद्वार पार करते ही क्षेत्रकी धर्मशाला है । यह दोमंजिली है। उससे आगे बढ़नेपर क्षेत्रका कार्यालय मिलता है । फिर द्वार पार करके खुला चौक आता है। वहीं पर प्राचीन दिगम्बर जैन मन्दिर है । इस मन्दिरमें पूर्व और दक्षिणकी ओर स्तूपमा अथवा मीनारनुमा दो प्राचीन मानस्तम्भ बने हुए हैं । ये लगभग ५० फुट ऊँचे हैं । इनमें एक में ऊपर जाने के लिए तथा दूसरे में नीचे जानेके लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। कहा जाता है कि ये मानस्तम्भ २२०० वर्ष प्राचीन हैं। पहले यहाँ चारों दिशाओं में मानस्तम्भ बने हुए । अनुमानतः दो सौ वर्ष पूर्व भयानक भूकम्प आया था । उसमें दो मानस्तम्भ नष्ट हो गये । सन् १९३४ में पुनः भूकम्प आया। इसमें वर्तमान मानस्तम्भ भी फट गये थे । उनका जीर्णोद्धार सन् १९३८ में किया गया । पूर्ववाले मानस्तम्भके नीचेसे एक सुरंग जाती थी जो १८० मील लम्बी थी और वह सम्मेद शिखरपर चन्द्रप्रभ भगवान् की टोंकके पास निकलती थी । कुछ लोगोंका कहना है कि यह सुरंग मन्दारगिरि तक जाती थी । किन्तु भूकम्पमें जमीन धसक जानेसे यह सुरंग बन्द हो गयी । स्तम्भोंके ९ खण्ड या भाग हैं। ऊपर चारों ओर ईरानी शैलीके कंगूरे बने हुए हैं। शीर्ष अठपहलू है। स्तम्भों के ऊपर कलश हैं । एक स्तम्भकी नीचेवाली कोठरी में संस्कृत तथा अरब भाषा के प्राचीन लेख उत्कीर्ण हैं । संवत् पढ़ने में नहीं आता । सम्भवतः यह संवत् १९२१ है । १. See the inscription in Major Francklin's site of Ancient Palibothra, pp. 16-17.
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy