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________________ बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ ३९ वर्ष भी वैसा ही करते थे। तब उसने अत्यन्त कुपित हो ऐसा सोचा--'गण ( प्रजातन्त्र ) के साथ युद्ध मुश्किल है। उनका एक प्रहार भी बेकार नहीं जाता। किसी एक पण्डितके साथ मन्त्रणा करके कुछ करना अच्छा होगा।' यह सोच उसने वर्षकार ब्राह्मणको ( तथागतके पास ) भेजा। ( और जैसा कि ऊपर निर्देश किया जा चुका है, वर्षकार तथागतसे संकेत पाकर लौटा और वैशालीमें जाकर परस्पर भेद डलवा दिया। जब भेद पड़ गया तो अजातशत्रुने आक्रमण करके वैशाली पर अधिकार कर लिया।) -अट्ठकथा ___जैन और बौद्ध दोनों ही परम्पराओंमें युद्धके कारण और युद्धका रूप पृथक्-पृथक् दिये गये हैं। किन्तु दोनोंका फलितार्थ एक है-अजातशत्रुने वैशाली संघ तथा उसके साथ उसके समीपवर्ती अन्य गणराज्योंको पराजित करके उनपर अपना अधिकार कर लिया । वैशाली यद्यपि अजातशत्रुके अधीन हो गयी, किन्तु उसे पराधीनता निरन्तर सालती रही। वह अजातशत्रुके बाद पुनः स्वतन्त्र हो गयी । सम्भवतः उस समय विदेह और वैशाली संघ दोनों पृथक् हो गये किन्तु सहयोग और सौहार्द दोनोंमें बराबर बना रहा। ___मगध साम्राज्यमें सम्मिलित होने पर भी लिच्छवी प्रभावहीन नहीं हुए। ईसाकी तीसरी शताब्दीमें लिच्छवी काफी शक्तिशाली हो गये। चतुर्थं शताब्दीके प्रारम्भमें घटोत्कच गुप्तके पुत्र प्रथम चन्द्रगुप्तने पाटलिपुत्रमें गुप्त साम्राज्यकी नींव रखी। उसका विवाह लिच्छवी कुलकी कन्या कुमारदेवीके साथ हुआ था। डॉ. स्मिथकी मान्यता है कि लिच्छवियोकी सहायतासे चन्द्रगुप्तने मगधका राज्य प्राप्त किया था। प्राचीन कालमें वैशालीके लिच्छवी मगध नरेशोंके प्रतिद्वन्द्वी थे। लिच्छवि-कुलके साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होनेपर ही चन्द्रगुप्तकी प्रतिष्ठा बढ़ी थी। चन्द्रगुप्तके पुत्र समुद्रगुप्तने अनेक राज्योंको जीतकर चक्रवर्तीका विरुद धारण किया। उसने अपने पिता चन्द्रगुप्तके नामसे एक स्वर्ण मुद्रा भी चलायी, जिसके एक तरफ चन्द्रगुप्त और अपनी माता कुमारदेवीकी मूर्ति अंकित करायी और दूसरी ओर सिंहारूढ़ा देवी लक्ष्मी की मूर्ति अंकित करायी, जिसके नीचे 'लिच्छवयः' लिखा हुआ था। इसी प्रकार इलाहाबाद किलेके स्तम्भ लेखमें समुद्रगुप्त अपना परिचय 'लिच्छवि दौहित्र' कहकर देता है। इन तथ्योंसे प्रमाणित होता है कि गुप्तनरेशोंके मनमें लिच्छवियोंके प्रति आभारकी भावना थी। इससे यह भी सिद्ध होता है कि उस कालमें लिच्छवियोंकी शक्ति और राष्ट्रीय प्रतिष्ठा पुनः बढ़ गयी थी। महावीरको जन्मभूमिके सम्बन्धमें भ्रान्ति भगवान् महावीर वैशाली संघके कुण्डपुरमें उत्पन्न हुए थे, यह ऊपर अनेक प्रमाणों द्वारा सिद्ध किया जा चुका है। वे ज्ञातृवंशी काश्यपगोत्री क्षत्रिय थे। अब भी उस प्रदेशमें काश्यप गोत्री जथरिया विद्यमान हैं जो वस्तुतः ज्ञात्तृवंशी हैं और ज्ञातृ शब्द ही अपभ्रंश होकर जथरिया कहलाने लगा है। किन्तु यह अत्यन्त आश्चर्यकी बात है कि जैन लोग उस कुण्डपुरको भूल गये और नामसाम्यके कारण अन्य कुण्डपूरोंको भगवान्की जन्मभूमि मानने लगे एवं उन्हीं स्थानोंकी यात्रा करने लगे। दिगम्बर सम्प्रदायके लोग नालन्दासे प्रायः दो मील दूर स्थित 'कुण्डलपुर' को भगवान्की जन्मभूमि मानते हैं। श्वेताम्बर लोग पूर्व बिहारमें लिच्छुआड़ और क्षत्रियकुण्डको भगवान्की जन्मभूमि मानते हैं। यह स्थान पूर्व बिहारमें क्यूल स्टेशनसे पश्चिमकी ओर आठ कोस दूर है तथा लखीसराय
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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