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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ वे अपनी सेना लेकर विदेह जनपदके मध्यमें होकर जहाँ देशका अन्त था, वहाँ आये। कुणिकने चेटककी सेनासे एक योजन दूर अपना पड़ाव डाला। दोनों ओरसे भयंकर युद्ध हुआ। कुणिकने गरुणव्यूहकी रचना की तो चेटकने शकटव्यह बनाया। चेटकका लक्ष्य-वेध अमोघ था। किन्तु वे एक दिन में एक ही लक्ष्य-सन्धान करते थे। फल यह हुआ कि उनके अमोघ बाणोंसे प्रतिदिन कुणिकका एक भाई मारा जाता रहा। इस प्रकार दस दिनमें दसों भाई मारे गये। अब कुणिक की विजयकी सम्भावना धूमिल पड़ गयी। उसकी सेनाका बहुभाग नष्ट हो गया। जो सैनिक बचे थे, उनका भी मनोबल गिर चुका था। तभी दैवी चमत्कार हआ। कूणिकने शकेन्द्र और चमरेन्द्रको स्मरण किया, जो उसके पूर्वजन्मके मित्र थे। स्मरण करते ही दोनों इन्द्र मित्रकी सहायताके लिए दौड़े आये। उन्होंने दो यन्त्रचालित भयंकर अस्त्र दिये । एकका नाम था रथमशल यन्त्र और दूसरा था महाशिलाकण्टक ।। रथमूशल महास्त्र-यह एक लीह निर्मित विराटकाय बिना योद्धा और बिना सारथीका रथ था। इसपर किसी भी शस्त्रका कोई प्रभाव नहीं होता था। जो कोई इस लौहयन्त्रकी चपेटमें आ जाता, उसीकी चटनी बन जाती। इस यन्त्रके द्वारा चौरासी लाख (?) व्यक्तियोंका संहार हुआ। ___महाशिलाकण्टक-इस यन्त्रमें कंकड़-पत्थर, काठ-कवाड़ जो कुछ तुच्छसे तुच्छ साधन मिले, उन्हींको वह बड़े वेगसे शत्रुपर फेंकता था और वह फेंका हुआ पदार्थ महाशिलाकी भाँति शत्रुपर आघात करता था। इस यन्त्रसे ९६ लाख (?) व्यक्तियोंका विनाश हुआ। चेटक असहाय बने अपने पक्षका यह भीषण विनाश देख रहे थे । वे अपने दौहित्र अजातशत्रुको मारना नहीं चाहते थे। अतः निराश होकर वे एक कुएं में कूद पड़े और समाप्त हो गये । उनके मरते ही वैशालीकी सेनाने हथियार डाल दिये। इस प्रकार तत्कालीन भारतके सबसे शक्तिशाली और समृद्ध गणसत्ताक राज्यका पतन हो गया। वज्जीसंघ, मल्लसंघ सबपर अजातशत्रुका अधिकार हो गया। हल्ल और विहल्लने मुनिदीक्षा ले ली। -भगवतीसूत्र, सातवां शतक, नौवाँ उद्देश्य ___बौद्ध साहित्यमें वैशालीके विरुद्ध अजातशत्रुके अभियानका कारण और घटना कुछ अन्य ढंगसे दिये हैं। जो इस प्रकार हैं उस समय सूनीथ और वर्षकार मगधके महामात्य पाटलिग्राममें वज्जियोंको रोकनेके लिए नगर बसा रहे थे। ___ गंगाके घाटके पास आधा योजन अजातशत्रुका राज्य था और आधा योजन लिच्छवियोंका। वहाँ पर्वतके पाद (जड़ ) से बहमल्य सुगन्धवाला' माल उतरता था। उसको सुनकर अजातशत्रुके–'आज जाऊँ, कल जाऊँ' करते ही लिच्छवी एक राय, एक मत हो पहले ही जाकर सब ले लेते थे। अजातशत्रु पीछे जाकर उस समाचारको पा क्रुद्ध हो चला आता था। वह दूसरे १. गंगाके किनारे एक किला था। इससे थोड़ी दूर एक पहाड़ था। उसकी तलहटीमें रत्नोंकी खान थी। लिच्छवियों और अजातशत्रुमें सन्धि थी कि रत्नोंका समान बँटवारा होगा। किन्तु उद्दण्ड लिच्छवियोंने सन्धि तोड़ दी । अजातशत्रु बहुत बिगड़ा । उसने लिच्छवियोंको दण्डित करनेकी सोची किन्तु संख्यामें वे अधिक थे। अतः उसने उनसे मित्रता करने का प्रयत्न किया। किन्तु कुछ समय बाद उसने यह विचार छोड़ दिया। उसने कूटनैतिक प्रयत्नों द्वारा लिच्छवियों में फूट डाल दी और तब उन्हें जीत लिया।-सुमंगल विलासिनी ( वर्मी संस्करण ) Simon Hewavitarn's Bequest Series no. 1, Revised by Namissar, p. 99.
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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