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________________ भारतके दिगम्बर जैत तीर्थ विदूडभने चित्तमें ठान लिया-'वह मेरे बैठने के तख्तको क्षीरोदकसे धोते हैं। मैं राजगद्दी पर बैठ, उनके गलेका रक्त ले, अपने तख्तको धुलवाऊँगा। उसके श्रावस्ती जानेपर अमात्योंने उस बातको राजासे कहा। राजाने शाक्योंसे क्रुद्ध हो वासवखत्तिया-विदूडभ दोनों माता-पुत्रको दिये सम्मानको छीनकर उन्हें दास-दासीके योग्य स्थान दिलाया। कुछ दिन बाद शास्ता ( बुद्ध ) राजमहलमें जाकर बैठे। राजाने आकर वन्दना कर उनसे सब कह दिया। शास्ताने कहा-'महाराज ! शाक्योंने अयुक्त किया। महाराज ! मैं तुमको कहता हूँ, वासवखत्तिया राजदुहिता है। क्षत्रिय राजाके गेहमें उसने अभिषेक पाया है। विदूडभ भी क्षत्रिय राजासे उत्पन्न हुआ है । माताका गोत्र क्या करेगा। पिताका गोत्र काफी ( प्रमाण ) है।' सुनकर राजाने सन्तुष्ट हो फिर माता-पुत्रको उनका प्रकृत परिहार ( सम्मान ) दे दिया। (धम्मपद अट्रकहा ४।३ ) बुद्धने शाक्योंके अपराधकी पैरवी करके प्रसेनजित्को शान्त करनेके लिए जिस प्रकार युक्ति दी, वैसी युक्ति वे अजातशत्रुको उसके संकल्पसे विरत करनेके लिए वैशालीके सम्बन्धमें नहीं दे पाये । कारण स्पष्ट था । शाक्य संघ उनका अपना संघ था। उन्होंने विदूडभसे इस बातको कहा था। प्रसंग इस प्रकार था ___"विदडभ भी राज्य प्राप्त कर उस वैरको स्मरण कर सभी शाक्योंके मारनेके लिए बडी सेनाके साथ निकला। उस दिन भगवान् कपिलवस्तुके पास जाकर एक कबरी छाया वाले वृक्षके नीचे बैठे थे । वहाँ पास ही में विदूडभकी राज्य-सीमामें बड़ी घनी छायावाला वरगदका वृक्ष था। विदूडभने शास्ताको देख, जाकर वन्दना कर कहा-'भन्ते ! ऐसे गर्मीके समय इस कबरी छायावाले वृक्षके नीचे बैठे हैं । इस घनी छायावाले बरगदके नीचे बैठे।' 'ठीक है महाराज ! ज्ञातकों ( भाई-बन्दों) की छाया ठण्डी होती है।' कहनेपर शास्ता ज्ञातकोंको बचानेके लिए आये हैं-सोच, शास्ताको वन्दना कर, श्रावस्तीको ही लौट गया।' (धम्मपद अट्ठकहा ४।३) बुद्धने अपने ज्ञातकोंको बचानेका तीन बार प्रयत्न किया। इस घटनाको प्रसेनजितको बुद्ध द्वारा दिये गये उत्तरके साथ पढ़ने पर हमारी उस धारणाकी पुष्टि हो जाती है जो हम ऊपर प्रकट कर चुके हैं। चौथी बार जब बुद्ध वहाँ विद्यमान नहीं थे, तब विदूडभने आकर शाक्यकुलका उच्छेद कर दिया। इसके पश्चान् पुनः कभी शाक्य संघ नहीं बन पाया। अस्तु। इसके पश्चात् वर्षकार राजाके पास गया। राजाने उससे पूछा-'आचार्य! भगवान्ने क्या कहा ?' उसने कहा-'भो! श्रमणके कथनसे तो वज्जियोंको किसी प्रकार भी लिया नहीं जा सकता। हाँ, अलापन ( रिश्वत ) और आपसमें फूट होनेसे लिया जा सकता है।' तब राजाने कहा-'उपलापनसे हमारे हाथो-घोड़े नष्ट होंगे। भेद ( फूट ) से ही पकड़ना चाहिए।' इसके पश्चात् किस प्रकार वर्षकारने योजनाबद्ध रीतिसे राजासे दिखावटी झगडा करके वैशालोमें जाकर कूटयन्त्र फैलाया और फूट डालकर वैशालीको पराजित किया, इसका विस्तृत वर्णन उक्त सुत्तको अट्ठकहामें दिया गया है। वैशाली की पराजय श्रेणिकके पुत्र अजातशत्रु और वैशालीके बीच युद्ध किस कारण हुआ, इस सम्बन्धमें श्वेताम्बर आगमोंमें पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। कणिक (अजातशत्रु ) जब गर्भमें था, तब उसकी माता चेलनाको भयंकर दोहला हुआ कि मैं अपने पतिकी छातीका मांस खाऊँ। इस दोहलेसे उसे बड़ा दुख हआ। उसने अपने पतिसे
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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