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________________ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ सदस्य तथा तीनों गणसंघोंके गणपति सम्मिलित होते थे। इस कालमें वज्जीसंघके गणपतिका नाम चेटक, कासी-कोल गणके राजप्रमुखका नाम विश्वभूति और मल्लोंके गणप्रमुखका नाम रोहक था। इस संयुक्त सन्निपात भेरीकी बैठकमें महासेनापतिका निर्वाचन किया जाता था। वह फिर अपनी युद्ध उद्वाहिकाका संगठन करता था। प्रजापर किसी प्रकारका कोई कर नहीं था। पुराने कर भी समाप्त कर दिये गये थे। न्याय व्यवस्था वैशालीमें निरपराधीके दण्डित होने और अपराधीके दण्डसे बचनेकी सम्भावना प्रायः नहीं थी। वहाँकी न्याय व्यवस्था अत्यन्त निष्पक्ष थी। यदि कोई व्यक्ति चोरीके अपराधमें पकड़ा जाता था तो वह सबसे पहले विनिश्चय महामात्रके पास ले जाया जाता था। यदि महामात्र उसे निर्दोष पाते तो वह छोड़ दिया जाता। यदि अपराधी सिद्ध होता तो उसे वोहारिकोके पास भेज दिया जाता। दोषी साबित होनेपर वोहारिको अन्तोकारिकोके पास, वह सेनापतिके पास, सेनापति उपराजाके पास, उपराजा राजाके पास भेज देता था। राजा सर्वोच्च अधिकारी होता था। यदि राजा उसे दोषी पाता तो वह 'पवनिपोत्थक' (कानूनकी तत्कालीन पुस्तक) के अनुसार सजा सुना देता था। विवाह-विधान प्रार्थना करनेपर किसी लिच्छवीके लिए पत्नीका चुनाव लिच्छवीगण करता था।' वैशाली तीन जिलोंमें विभक्त थी। (जैसा कि हम पूर्वमें कह आये हैं ) लिच्छवियोंमें यह रिवाज प्रचलित था कि जो स्त्री प्रथम जिलेमें उत्पन्न होती थी, उसका विवाह प्रथम जिलेमें ही होता था। जो मध्य जिलेमें पैदा होती थी, उसका विवाह प्रथम और द्वितीय जिलेमें होता था। जो तीसरे जिलेमें उत्पन्न होती थी, उसका विवाह किसी भी जिलेमें हो सकता था। किन्तु वैशालीकी कोई स्त्री वैशालीसे बाहर विवाह नहीं कर सकती थी। वैशालीका वैभव ___ वैशाली अत्यन्त समृद्ध नगरी थी। उस समय वैशालीमें एक-एक गव्यूति ( १ गव्यूति-२ मील ) की दूरी पर तीन प्राकारें बनी हुई थीं। तीनों प्राकारोंमें गोपुर थे, अट्टालिकाएँ थीं तथा कोठे बने हुए थे। विनयपिटक'के अनुसार वैशाली अत्यन्त समृद्धिशाली और धन-जनसे परिपूर्ण थी। उसमें ७७७७ प्रासाद, ७७७७ कूटागार, ७७७७ आराम और ७७७७ पुष्करिणियाँ थीं। तिब्बतसे प्राप्त कूछ ग्रन्थोंके अनुसार वैशालीमें ७००० सोनेके कलशवाले महल, १४००० चाँदीके कलशवाले महल तथा २१००० ताँबेके कलशवाले महल थे। इन तीन प्रकारके महलों में क्रमशः उत्तम, मध्यम और जघन्य कुलके लोग रहते थे। १. सूमंगल विलासिनी। २. सुमंगल विलासिनी Vol. I, पृ. ३५६, महापरिनिव्वाणसुत्त । ३. भिक्षनिविभंग संघादिदेश द्वितीय भाग, पृ. २२५ । ४. The Life of the Buddha by Rockhill, p. 62. ५. एकपण्ण जातक, पृ. १२८ । ६. विनयपिटक महावग्ग ८।१।१ ।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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