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________________ बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जन तीर्थ गण-शासन वस्तुतः शासन नहीं, एक व्यवस्था होती है। उसमें दायित्व उसके प्रत्येक सदस्यपर होता है। गणका स्वामी गणपति होता है, और गण-परिषद् उसकी प्रतिनिधि होती है। वैशाली संघमें भी यही बात थी। इस अष्टकुलके वज्जी संघमें अलिच्छवि भी थे, ब्राह्मण-बनिये भी थे, कम्मकर और दास भी थे। किन्तु शासनमें उनका कोई भाग नहीं था। संघकी ओर से सम्पूर्ण सुरक्षा और विकासके आश्वासन एवं अवसर उन्हें उपलब्ध थे। वैशालीमें अनेकों कोट्यधीश भी थे, जिनका वाणिज्य सुदूर यवद्वीप, स्वर्णद्वीप, पश्चिममें ताम्रपर्णी, मिश्र, तुर्क तक फैला हुआ था। किन्तु लिच्छवि संघमें उनकी कोई आवाज या प्रतिनिधित्व नहीं होता था। वस्तुतः देशका शासन लिच्छविगणके हाथमें था। वही अपने सदस्योंको चुनता था और प्रत्येक सदस्यको राजा कहा जाता था। ये सभासद् 'गणराजानः' कहलाते थे। कौटिलीय अर्थशास्त्रमें लिच्छवियोंके संघको 'राजशब्दोपजीवी' कहा है। ‘महावस्तु संग्रह ग्रन्थ' में लिखा है कि वैशालीमें १ लाख ६८ हजार राजा रहते हैं। 'एकषण्ण जातक के अनुसार वहाँ सदैव राज्य करवाते हुए रहनेवाले राजाओंकी संख्या ७७०७ होती थी। उतने ही उपराजा होते थे। उतने ही सेनापति, उतने ही भण्डारी। गण-परिषद्का एक सार्वजनिक राजभवन होता था, जिसे सन्थागार कहा जाता था। इसमें बैठकर गण सदस्य राज्यव्यवस्था-सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक विषयोंपर विचार करते थे। इनके निर्णय प्रायः सर्वसम्मत होते थे। किन्तु यदि किसी विषयपर मतभेद होता था तो उसका निर्णय छन्दके आधारपर किया जाता था। शलाकाग्राहक छन्द शलाकाएँ लेकर सदस्योंके पास जाते थे। ये शलाकाएँ दो प्रकारकी होती थीं-काली और लाल। लाल शलाका प्रस्तावके समर्थनके लिए होती थीं और काली शलाकाएँ प्रस्तावके विरोधके लिए होती थीं। गणपति प्रस्तावपर तीन बार सदस्योंसे पूछते थे। मतभेद होनेकी दशामें ही छन्दशलाकाओंका प्रयोग किया जाता था। शलाकाग्राहक जब सब सदस्योंको शलाकाएँ बाँट चकते तो डलियामें बाकी बची हुई शलाकाओंकी गणना करके गणपति छन्द-निर्णय घोषित कर देते थे। उस निर्णयको फिर सभीको स्वीकार करना पड़ता था। ये गणसभाएँ अकसर होती रहती थीं। ढोल पोटकर सभाकी घोषणा की जाती थी। इसमें प्रत्येक सदस्य सम्मिलित होता था और काम समाप्त होनेपर तत्काल सभा समाप्त हो जाती थी। वज्जीसंघके निकट ही मल्लगणसंघ और कासी-कोल गणसंघ थे। इस कालमें दो मल्ल देश थे-एक पश्चिम मल्ल और दूसरा पूर्व मल्ल । मुलतानके आसपासका प्रदेश पश्चिम मल्ल कहलाता था और पावा-कुशीनाराके पासकी भूमि पूर्व मल्ल। पूर्वी मल्ल ही इतिहास-प्रसिद्ध मल्लगणसंघ था। यह वैशालीके पश्चिममें और कोशलके पूर्वमें स्थित था। मगधसे कोशल जाते समय मल्ल देश बीचमें पड़ता था। आधुनिक गोरखपुर और सारन जिलोंका अधिकांश भाग प्राचीन मल्लसंघमें था। जब उपर्युक्त तीनों गणसंघोंमें से किसीके ऊपर भी किसी ओर से आक्रमणकी आशंका होती थी तो इन तोनों संघोंकी पारस्परिक मैत्री-सन्धिके अनुसार वैशालीकी गणसन्था तोनों संघोंकी युद्ध उद्वाहिकाको संयुक्त सन्निपात भेरीकी विशिष्ट बैठक बुलाती थी। उसमें वज्जीगण अष्टकुलके नौ प्रतिनिधि, मल्ल संघोंके नौ राजा, कासी-कोलके अठारह राजा, तीनों संघोंकी युद्ध उद्वाहिकाके १. महावस्तु संग्रह ११२७१ । २. सुमंगल विलासिनी। भाग २-४
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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