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________________ १२ - भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ उपलब्ध होती हैं। ये मूर्तियाँ जहाँ बिखरी पड़ी हैं, वहाँ मन्दिरोंके चिह्न भी मिलते हैं। अतः असन्दिग्ध रूपसे ये मन्दिर भी इसी कालके थे। राजगृहीके उदयगिरि और वैभारगिरि पर्वतोंपर उत्खननमें प्राचीन मन्दिर निकले हैं। वैभारेगिरिके ऊपर तो २२ कमरे निकले हैं। प्रत्येक कमरेमें मूर्ति विराजमान हैं। इन गर्भगृहोंको देखनेसे लगता है कि प्राचीन कालमें गर्भगृह बहुत छोटे-छोटे बनाये जाते थे। सभी गर्भगृह ईंटोंके बनाये हुए हैं । इनमें छोटी ईंटोंका प्रयोग हुआ है। जैन प्रतीक जैनकलामें प्रतीकोंका विशिष्ट महत्त्व है। जैन प्रतीक वस्तुतः तीर्थंकरोंके समवसरणके विभिन्न अंगोंके स्मारक हैं। धर्मचक्र, स्वस्तिक, वर्धमंगल, नन्द्यावर्त, नन्दिपद, चैत्यवृक्ष या . सिद्धार्थवृक्ष, त्रिरत्न, कलश, भद्रासन, मत्स्य, पुष्पमाल, अशोकवृक्ष, पुष्पवृष्टि, दुन्दुभि, छत्र, चमर, भामण्डल, घण्टे, सर्पचिह्न, गंगा-यमुना, तीर्थंकरोंके चिह्न-वृषभ, सिंह आदि जैन प्रतीक माने गये हैं। जैन प्रतीक-योजनामें इन चिह्नों और प्रतीकोंका अपना विशेष स्थान रहा है। प्राचीन जैन मूर्तियों, मन्दिरों और शिलालेखोंमें इनका खुलकर प्रयोग किया जाता था। कुछ विद्वानोंका तो मत है कि प्रतीक-योजना उस समयसे प्रचलित है, जब मूर्ति-कलाका प्रारम्भ भी नहीं हुआ था। उस समय प्रतीकोंकी ही पूजा प्रचलित थी। सिन्धु सभ्यताके अवशेषोंमें हमें कई सीलों और नग्न मातयाम त्रिरत्न, वृषभ आदि अंकित मिलते हैं, जिससे उस कालमें भी इन प्रतीकोक प्रचलन की सिद्धि होती है। मौर्यकालकी मूर्तियोंमें प्रतीक-योजनाका क्या रूप रहा, यह तबतक नहीं कहा जा सकता, जबतक कि मौर्यकालकी कुछ मूर्तियाँ उपलब्ध न हो जायें। लोहानीपुरसे जो मौर्यकालीन तीर्थंकरप्रतिमा उपलब्ध हुई है, वह सिर, हाथ और पैरोंसे खण्डित है। अतः उसके आधारपर इस सम्बन्धमें कोई निष्कर्ष निकालना सम्भव नहीं है। प्रतीक-योजना के अन्तर्गत विविध-प्रतीकोंका सर्वप्रथम स्पष्ट अंकन खण्डगिरि-उदयगिरिकी विभिन्न गुफाओंमें मिलता है। इन प्रतीकोंमें वर्धमंगल, स्वस्तिक, नन्दिपद और चैत्यवृक्ष इन चार प्रतीकोंका प्रयोग हाथीगुफाके शिलालेखमें मिलता है। इस शिलालेखमें वामपार्श्वमें दो और दाहिनी ओर दो चिह्न हैं । जय-विजय गुफामें सिरदलपर दो पुरुष और दो स्त्रियाँ सिद्धार्थवृक्षकी पूजा करते हुए अंकित हैं। स्त्रियाँ पात्रमें पूजाका द्रव्य लिये हुए हैं। एक पुरुष बद्धांजलि खड़ा है तथा दूसरा पुरुष माल्यार्पण कर रहा है । इस वृक्षको कुछ लोगोंने भ्रमवश पीपलका वृक्ष मान लिया है जो कि वस्तुतः सिद्धार्थवृक्ष है। अनन्त गुफाके द्वारके सिरदलपर तीन फणवाली सर्प-युगल मूर्ति अंकित है। पार्श्वनाथका प्रतीक चिह्न सर्प है। धरणेन्द्र और पद्मावती उनके सेवक यक्ष-यक्षिणी हैं, जो नागकुमार जातिके इन्द्र और इन्द्राणी हैं। पार्श्वनाथके साथ कलिंगका सम्बन्ध रहा है। इस तथ्यकी पुष्टि शिल्पीने सर्प-युगल अंकित करके कर दी है। सर जान मार्शलके मतानुसार गुफा-स्थापत्यकी दृष्टिसे यह गुफा संसारमें सर्वप्रथम है। यह ईसा पूर्व प्रथम शताब्दीकी है। मूर्तियोंके पादपीठपर धर्मचक्रका अंकन जैनकलाका अपना वैशिष्ट्य है। तीर्थंकरोंके विहारके समय धर्मचक्र आगे-आगे चलता है। इस धर्मचक्र की बदौलत ही तीर्थंकर धर्मचक्री कहलाते हैं। तीर्थंकर केवलज्ञान-प्राप्तिके पश्चात् दिव्यध्वनि द्वारा जो धर्मोपदेश देते हैं, उसे भी
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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