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________________ बिहार-बंगाल-उड़ीसाके दिगम्बर जैन तीर्थ शास्त्रीय भाषामें धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है। इसीलिए प्रारम्भसे ही प्रायः सभी जैन मतियों के सिंहासनपीठपर मध्यमें या दोनों ओर धर्म-चक्र रहता है। ___ जैनग्रन्थोंमें सभी तीर्थंकरोंका अलग-अलग जन्म-चिह्न बताया है। जैन मूर्तियोंके पादपीठपर वह चिह्न अंकित रहता है । गुप्त-कालसे तो इसका प्रचलन काफी बढ़ गया था। किन्तु इससे पूर्ववर्ती मूर्तियोंके ऊपर चिह्न अंकित करनेकी आम प्रथा नहीं थी। खण्डगिरि-उदयगिरि गुफाओंके वेदिका-स्तम्भों और सिरदलोंपर अकेले चिह्नका भी अंकन मिलता है। राजगृहीकी सोन भण्डार गुफाओंमें मूर्तियोंके पाद-पीठोंपर लांछन अंकित हैं। पाकवीर, कुलुहा आदि स्थानोंपर जो मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं, उनके सिंहासन-पीठपर लांछन बने हुए हैं। ताम्र-शासन बंगालके राजशाही जिले में पहाड़पुर नामक स्थानसे एक ताम्रशासन या ताम्रपत्र उपलब्ध हुआ है। यह स्थान कलकत्तासे १८९ मील उत्तरकी ओर, और जमालगंज स्टेशनसे ३ मील पश्चिमकी ओर बदलगाछी थानेके अन्तर्गत है। यह ताम्रपत्र गुप्त संवत् १५९ ( ई. सन् ४७८ ) का है। यहाँ एक जैन विहार मन्दिर था, जिसके ध्वंसावशेष चारों ओर बिखरे पड़े हैं। इसके चारों ओर प्राचीन कालमें प्राचीर था। आजकल इसके अवशेष मिलते हैं। मध्यमें एक टीला है। इसके कारण इस स्थानका नाम पहाड़पुर पड़ गया है। इस टीलेके उत्खननसे ही उक्त ताम्रपत्र उपलब्ध हुआ है। ___ इस ताम्रपत्रमें पंचस्तूपान्वयके निर्ग्रन्थ श्रमणाचार्य गुहनन्दिके जैन विहारका उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार एक ब्राह्मण दम्पतिने पुण्ड्रवर्धनके विभिन्न ग्रामोंमें भूमि खरीदकर वटगोहाली ग्रामके जैन विहारको अर्हत्पूजाके लिए उसे दान किया था। अनुमान किया जाता है कि वटगोहालीका विहार वही होना चाहिए जो पहाड़पुरकी खुदाईसे प्रकाशमें आया है। खुदाईके फलस्वरूप इस विहारके सम्बन्धमें अनेक तथ्य प्रकाशमें आये हैं। यह विहार विशाल आकारका था। इसका परकोटा लगभग एक हजार वर्ग गजका था। जिसके चारों ओर १७५ से भी अधिक गुफाकार प्रकोष्ठ थे। विहारके चौकमें चारों दिशाओंमें विशाल द्वार थे। चौकके ठीक बीचों-बीच स्वस्तिकके आकारका सर्वतोभद्र मन्दिर था। यह साढ़े तीन सौ फुट लम्बा-चौड़ा था। इसके चारों ओर परिक्रमा बनी हुई थी। मन्दिर तीन मंजिलका था। इनमें से दो मंजिल तो स्पष्ट दिखाई पड़ती हैं। मन्दिरकी दीवालें और फर्श पकी ईंटोंकी बनी हुई हैं। तीसरी मंजिलके ऊपर शिखर था । आजकल जो अवशेष उपलब्ध हैं, उनमें ७० फुट ऊँची दीवाल अब भी विद्यमान है। यह मन्दिर स्थापत्य कलाका अनुपम उदाहरण है। इसकी कलाका प्रभाव वर्माके पैगान और मध्य जावाके चण्डी लोटो जोंगरंग और चण्डी सीत' मन्दिरोंपर स्पष्ट परिलक्षित होता है। किन्तु इसकी कलाकी समानता कोई दूसरा मन्दिर नहीं कर सका। सर्वतोभद्र मन्दिरों की परम्परामें यह सम्भवतः प्रथम ज्ञात मन्दिर है और सर्वतोभद्र मन्दिर जैन परम्परा की अपनी विशेषता है। इस सम्पूर्ण विहार-मन्दिरका निर्माण एक ही कालमें हुआ था। Bombay १. The struggle for Empire, Vol. V, Bharatiya Vidya Bhawan, pp. 637-640.
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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