________________
परिशिष्ट-२
२३३ पात्रा, उत्तरकुली और मन्दरानी। सन्थाल परगनेमें इनको फूलसारकी, सिखरिया, कन्दल और सारको ताँती कहते हैं।
नवाडीह, देवलडीह ( सिंहभूम जिला ) आदिमें श्रावकोंमें गृहस्थाचार्य भी पाये जाते हैं। ये लोग यज्ञोपवीत धारण करते हैं, पार्श्वनाथ भगवान्की प्रतिमा ( प्रायः धातुकी ) रखते हैं और उसका अभिषेक भी करते हैं । अन्य सराक यज्ञोपवीत धारण नहीं करते। ये माँझी, महापात्र, पात्र, दृत, सान्तरा, वर्धन, महात्र, आईवुधि, सामग्री, देवता, प्रमाणिक, आचार्य, वेहेरा, दास, साधुपुष्टि, महात, मोहता, मण्डल, वैशाख, राउत, नायक, निशंक, मौधुरी, मुदी, सेनापति, उच्च, नाहक आदि भिन्न-भिन्न संज्ञाधारी हैं।
सराक लोग बड़े शान्त नागरिक हैं। वे झगड़ा-फसादसे बचते हैं और पड़ोसियोंके साथ प्रेमपूर्वक रहते हैं। इनके वृद्ध लोगोंसे पता चलता है कि मूलतः ये लोग सरयू नदीके तटपर अयोध्या, गाजीपुरके निकटवर्ती प्रदेशके रहनेवाले थे और अग्रवाल थे। इनके १७ गोत्र हैं। इनके पूर्वज व्यापारके निमित इधर आये थे। वामनघाटी ताम्र शासन ( बारहवीं शताब्दी ) से ज्ञात होता है कि मयूरभंजके भंजवंशीय राजाओंने श्रावकोंको बहुत ग्राम दिये थे। श्रावकोंने जंगलोंमें ताँबेको खानें ढूंढ़ी और अपनी सारी शक्ति लगाकर इन खानोंका विकास किया। किन्तु विश्वास किया जाता है कि सन् १०२३ ई. में चोल नरेश राजेन्द्रदेवने बंगालके नरेश महीपालपर आक्रमण किया, तब आते-जाते दोनों ही समय चोल सेनाने धर्म-द्वेषवश सरकोंके बनवाये हुए जैनमन्दिरोंका विध्वंस कर दिया। इसके बाद पाण्ड्यनरेशोंने लिंगायत शैव सम्प्रदायके उन्मादमें जैन धर्मायतनोंका विनाश किया और सराकोंको धर्म-परिवर्तन करनेके लिए बाध्य किया। जिन्होंने अपना धर्म छोड़ना स्वीकार नहीं किया, उनपर भारी अत्याचार किये गये। जब दक्षिणकी ओरसे शैव धर्म और आन्ध्र प्रदेशकी ओरसे वैष्णव धर्मका झंझावात प्रबल वेगसे बढ़ता हुआ उड़ीसा, बंगाल और उत्तर बिहार में आया, उस समय उसके सामने जो झुक गये, वे बच गये; जिन्होंने कुछ साहस बटोरकर उसके सामने खड़े होनेका प्रयत्न किया, वे नष्ट हो गये या मार दिये गये। एक बार तो इन श्रावकोंको अपना स्थान, धन्धा, धर्मालय सब कुछ छोड़कर भागना पड़ा। किन्तु राज्याश्रयमें पला हुआ धार्मिक विप्लव बंगाल, उड़ीसा और उत्तर बिहारमें श्रावकोंका सफाया करके ही माना। ये विस्थापित लोग जहाँ-तहाँ प्रायः गाँवोंमें सुरक्षाकी दृष्टिसे बस गये। व्यापार छोड़कर खेती-बाड़ीका धन्धा करने लगे। धर्म छोड़कर भी संस्कार न छोड़ सके और हिन्दू कहलाकर भी अपने आपको श्रावक अथवा सराक ही कहते रहे। ऐसा करने में उनका उद्देश्य सम्भवतः यह रहा हो कि जब साम्प्रदायिकताका यह उन्माद और अत्याचार समाप्त हो जायेंगे और अनुकूल अवसर आयेगा, तब पुनः अपने मूल धर्म-जैन धर्मको ग्रहण कर लेंगे। ..
किन्तु लगता है, अनुकूल समय नहीं आ पाया और ये लाखों निरीह सराक जैन धर्मकी धारासे पृथक् हो गये । इन लोगोंको हिन्दू-धर्म अपनाना पड़ा। सिर्फ थोड़े-से जैन संस्कारोंकी पूँजी अभी इनके पास बची हुई है, जिसके कारण यह पता चलता है कि मूलतः इनके पूर्वज जैन थे और ये उस प्रदेशसे आये थे जहाँ ( अयोध्या, रतनपुरी और श्रावस्ती ) सात तीर्थंकर उत्पन्न हुए और जिनके ये वंशज हैं। इनके बीच भगवान् पार्श्वनाथने वर्षों तक विहार और उपदेश किया था। इनके पूर्वज सर्राफा और व्यापारका धन्धा छोड़कर इन प्रान्तोंमें अधिक लाभजनक व्यापारकी तलाशमें कभी आये थे। आकर उन्होंने खब कमाया, जिसके प्रमाणस्वरूप इन तीन प्रान्तोंमें इधर-उधर बिखरे पड़े बहुमूल्य जैनमन्दिर, कलापूर्ण मूर्तियाँ और अन्य विपुल जैन कीर्तियाँ हैं ।
भाग२-३०