________________
२३२
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ को नयनार मन्दिर कहा गया है। तिकपरित्ति कुनरम् मन्दिरमें जो शिलालेख है, उसमें तीर्थंकरोंको नयनार कहा गया है। कोलियानूर (विल्लुपुरम् जंकशन) के एक जैन मन्दिरपर लेख खुदा हुआ है-स्वस्ति श्री नयनार मन्दिर । दूसरे मन्दिरपर लेख यों अंकित है-कोलियानूर नल्लुर नयनार मन्दिर । किन्तु अब नयनार एक अलग जाति बन गयी है जो जैन धर्मके तो अनुयायी नहीं है, किन्तु उनमें जैन संस्कार हैं और वे जैन विचारधाराको उचित भी मानते हैं।
ऐसी ही एक जाति टिहरी-गढ़वाल (उत्तर प्रदेश) में और उसके आसपास बसती है, जिसका नाम है डिमरी। डिमरी शब्द दिगम्बरीसे बिगड़ते-बिगड़ते बना है। इनके जीवन-मरण आदि जातीय संस्कार यहाँके लोगोंसे पृथक् हैं तथा जैनोंसे बहुत मिलते-जुलते हैं। बदरीनाथका मन्दिर प्रारम्भसे डिमरी जातिके अधिकारमें रहा है। यह भी कहा जाता है कि प्राचीन कालमें बदरीनाथ और केदारनाथ धामोंके पुजारी डिमरी ही रहते थे। जबसे आद्य शंकराचार्यने इस मन्दिरपर अधिकार किया, तबसे इतना ही अन्तर पड़ा है कि यहाँ दो पुजारी रहने लगे हैंएक डिमरो और दूसरा दाक्षिणात्य। शीतकालके प्रारम्भमें बदरीनाथ मन्दिरकी उत्सव मूर्तिको डिमरी जातिका पुजारी ही जोशी मठ ले जाता है । यही पुजारी बदरीनाथकी मूर्तिकी पूजा करता है। विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि वह रात्रिमें भोजन नहीं करता, दिनमें ही करता है वह भी एक बार । वह आलू आदि कन्द भी नहीं खाता । अन्य डिमरो लोगोका आचार-व्यवहार देखनेपर उनमें जैनत्वकी छाप दीख पड़ती है।
उड़ीसामें इस प्रकारकी कई जातियाँ हैं जो पहले जैन थीं। यद्यपि अब वे जैन नहीं हैं, - किन्तु जैनत्वके संस्कार उनमें अबतक पाये जाते हैं। जैसे अखिनी जुलाहे, रंगणी जुलाहे, सराक, मंजिनाथ, अलेखी आदि जातियाँ और सम्प्रदाय । बिहारमें इस प्रकारको जातियोंमें जथरिया भूमिहार और सराक हैं तथा बंगालमें सराक जाति है। मेदिनीपुर जिलेमें सद्गोप हैं। इन जातियोंमें अन्य हिन्दुओंकी अपेक्षा एक भेद यह भी है कि इन जातियोंके लोग विवाह और शुद्धिक्रिया ब्राह्मणों द्वारा नहीं कराते बल्कि उनमें से कोई शिक्षित वृद्ध यह कार्य करा देता है ।
इन जातियोंमें सबसे अधिक जनसंख्या सराक जातिकी है। पहले इन्हें श्रावक कहा जाता था। श्रावक शब्दका अपभ्रंश होते-होते सराक बन गया। सिंहभूमि आदि जिलोंमें आदिवासी उन्हें 'सोराख' कहते हैं । इन सराकोंके रीति-रिवाजोंका अध्ययन करनेपर उनके सम्बन्धमें हम जिस परिणाम पर पहँचते हैं, वह यह है-ये पक्के शाकाहारी हैं, मांसाहारसे इन्हें घणा है। हिंसासे परहेज करते हैं । पशु-रक्षा या जीव-रक्षाकी ओर उनका विशेष ध्यान है । वे 'काटना' इस शब्दका व्यवहार नहीं करते। यदि भोजनके समय इस शब्दको सुन भी लें तो वे भोजन छोड़ देते हैं। गूलर आदि पंच उदुम्वर फल नहीं खाते। दिनमें खाना अच्छा समझते हैं। पार्श्वनाथको अपना कुलदेवता मानते हैं। ये प्याज, आलू और गोभी नहीं खाते। पानी प्रायः छानकर पीते हैं। णमोकार मन्त्र अधिकांश सराकोंको स्मरण है।
इन लोगोंके गोत्र आदिदेव, धर्मदेव, शान्तिदेव, ऋषभदेव, शाण्डिल्य, काश्यप, अनन्तदेव, भारद्वाज, क्षेमदेव, कृष्णदेव, गौतम, ब्रह्मपुरी, वत्सराज, पाराशर, गार्गी, जिगनेश आदि हैं। जातीय स्थानकी अपेक्षा इनके चार थोक या पोट हैं-(१) पाँच कोटिया-मानभूमके पाँचेत राज्यके निवासी । (२) नदीपारिया-वे सराक जो मानभूममें दामोदर नदीके दाहिने तटपर रहते हैं। (३) वीरभूमिया-बोरभूमिके रहनेवाले सराक । (४) तमारिया-जो राँचीके तमार परगनाके निवासी हैं। इनके अतिरिक्त सारकी ताँती या ताँती सराक भी हैं। यह जाति बुननेका काम करती है और जिला बाँकुड़ाके विष्णुपुर भागमें रहती हैं । इनमें भी चार भाग हैं-अश्विनी ताँती,