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________________ बंगाल-बिहार-उड़ीसामें सराक जाति प्राचीन कालमें भारतके प्रायः सभी प्रान्तोंमें जैन धर्मानयायियोंकी बहत बडी संख्या थी। उत्तर भारतमें अधिकांश तीर्थंकरोंका जन्म और विहार हुआ था। स्थान स्थानपर उनका समवसरण लगता था, वहाँ उनके उपदेश होते थे। अतः सम्पूर्ण उत्तर भारतमें जैन धर्मका बड़ा प्रचार था। पूर्व भारतमें भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान महावीरका विशेष रूपसे विहार हुआ था। जनतापर उनके लोकोत्तर व्यक्तित्व और लोक कल्याणकारी उपदेशोंका गहरा प्रभाव पड़ा था। इसका परिणाम यह हुआ कि बिहार, बंगाल और उड़ीसा ये तीन प्रान्त तो एक प्रकारसे जैन धर्मके रंगमें रँग गये । दक्षिण भारतमें स्वयं अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु और मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मुनि बनकर बारह हजार साधुओंके साथ गये। वहाँ वे साधु श्रुतकेवली भद्रबाहु गुरुकी आज्ञासे दक्षिणके प्रान्तोंमें-विशेषतः कर्नाटक और तमिल देशमें टोलियोंमें बँट गये। उन साधुओंके त्यागमय और निस्पृह आचार-विचार तथा उनके बुद्धिगम्य उपदेशोंसे प्रभावित होकर इन दो प्रान्तोंकी अधिकांश जनताने और राजाओंने जैन धर्म अंगीकार कर लिया। अनेक आचार्योंने तो कई राजवंशोंके राज्य स्थापित करनेमें भी सहायता दी और उन राजवंशोंने जैन आचार्योंको अपना गुरु ही नहीं स्वीकारा, उन्हें राजगुरु भी बनाया। इसी प्रकार पश्चिम भारतमें भट्रारकों और श्वेताम्बर आचार्योंने अपनी विद्वत्ता और निमित्त ज्ञान एवं मान्त्रिक बलसे राजा और प्रजा दोनोंको अनेक प्रकारसे अनुगृहीत किया और अपना शिष्य बना लिया। आठ-दस शताब्दी पूर्व तक प्रायः सम्पूर्ण भारतमें यही स्थिति बनी रही। . किन्तु अलग-अलग प्रान्तोंमें अलग-अलग कारणोंसे जैन धर्मका प्रभाव कम होता गया, जैन धर्मानुयायियोंकी संख्या क्षीण होती गयी और कुछ प्रान्तोंमें तो जैन धर्मानुयायी प्रायः नामशेष हो गये। इस स्थिति तक पहुँचनेके लिए जैनोंको अनेक अत्याचार सहने पड़े, उन्हें बलात् धर्म-परिवर्तन करने को बाध्य किया गया. अनेकोंको अपने धर्म-प्रेमका मल्य प्राण देकर चकाता पड़ा। बलात्-धर्म-परिवर्तन करनेवाले कुछ जैन हृदयसे तो जैन धर्मको प्रेम करते थे, उसके सिद्धान्तोंको आत्म-कल्याणके लिए आवश्यक समझते थे, किन्तु ऊपरसे उन्हें दूसरे धर्मका पालन करना पड़ता था। हर प्रान्तमें ऐसे छद्म जैनोंका एक बड़ा वर्ग रह गया, जो नामसे तो अपने आपको जैन नहीं कहता था, किन्तु उसके संस्कार जैन धर्मके ही बने रहे। अभी इस प्रकारकी जातियोंकी पूरी तरह खोज नहीं हो पायी है। किन्तु जितना पता चल सका है, उसके अनुसार तमिलनाडके नैनार, उत्तराखण्डके डिमरी, बिहार-बंगाल-उड़ीसाके सराक तथा उड़ीसाके रंगिया और मेदिनीपुर जिलेके सद्गोप ऐसे ही हैं। तमिलनाडके नैनार अथवा नयनारका अर्थ ही जैन है । इस प्रान्तके जैन लोग प्राचीन कालसे अपने तीर्थंकरों और मुनियोंको नयनार ही कहते आये हैं। तमिल-रचना शिलप्पडिकारस्में इलंगोवडिगलने मदुराईकाण्डम् नामक अध्याय अर्हन्तोंके मंगलाचरणसे प्रारम्भ किया है। मंगलाचरणको टीकामें अधियरक्कू नल्लार लिखता है कि अर्हन्त मन्दिर नयनार मन्दिर कहा जाता है । कलुगुमलइ और थिरुवडिकाइके शिलालेखोंमें जैन मुनियोंको नयनार और जैन मन्दिर
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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