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________________ २२४ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ वास्तवमें मालतो पर्वतपर ही कोटिशिला है तो उसे कलिंग देशमें मानना होगा। इस मान्यतासे निर्वाण काण्डवाली मान्यताका समर्थन ही होता है। पं. नाथूराम प्रेमी कलिंग और मगधका सामंजस्य इस प्रकार बैठाते हैं कि सम्राट अशोकके आक्रमणके बाद कलिंग मगधके अधिकारमें आ गया था। इसलिए उसे मगधमें गिना जाता होगा। कोटिशिला और पौराणिक साक्ष्य जैन पुराणोंमें कोटिशिलाका वर्णन अनेक स्थलोंपर आया है। उससे कोटिशिलाके सम्बन्धमें कुछ प्रकाश पड़ सकनेकी आशा है । 'हरिवंश पुराण' में कृष्णकी दिग्विजयका उल्लेख करते हुए कोटिशिलाका वर्णन इस प्रकार किया गया है "सब रत्नोंसे युक्त नारायणने चक्ररत्नकी पूजा करके देव, असुर और मनुष्योंके साथ जाकर दक्षिण भरत क्षेत्रको जीता। लगातार आठ वर्षों तक मनोवांछित भोग भोगे, समस्त राजाओंको जीत लिया। फिर वे कोटिशिलाकी ओर गये। चूंकि उस उत्कृष्ट शिलापर अनेक करोड़ मुनिराज सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हुए हैं, इसलिए वह पृथ्वीमें कोटिक शिलाके नामसे प्रसिद्ध है। श्रीकृष्णने सर्वप्रथम उस पवित्र शिलाकी पूजा की। उसके बाद अपनी दोनों भजाओंसे उसे चार अंगल ऊपर उठाया। वह शिला एक योजन ऊंची, एक योजन लम्बी और एक योजन चौड़ी है तथा अर्ध भरत क्षेत्रमें स्थित देवों द्वारा रक्षित है। पहले त्रिपृष्ठ नारायणने इस शिलाको जहाँ तक भुजाएँ ऊपर पहुँचती हैं, वहाँ तक ऊपर उठाया। दूसरे द्विपृष्ठने मस्तक तक, तीसरे स्वयम्भूने कण्ठ तक, चौथे पुरुषोत्तमने वक्षःस्थल तक, पाँचवें नृसिंहने हृदय तक, छठे पुण्डरीकने कमर तक, सातवें दत्तकने जाँघों तक, आठवें लक्ष्मणने घुटनों तक और नौवें कृष्ण नारायणने उसे चार अंगुल ऊपर तक उठाया। शिला उठानेके बलसे समस्त सेनाने जान लिया कि श्रीकृष्ण महान् शारीरिक बल सहित हैं।" - इस वर्णनसे कई बातोंपर प्रकाश पड़ता है। प्रथम तो यह कि इस कोटिशिलासे करोड़ों मुनि मुक्त हुए अर्थात् यह शिला महान् सिद्धभूमि है । द्वितीय यह कि नारायणोंके लिए इस शिलाका उठाना सदासे इसलिए आवश्यक समझा जाता रहा है जिससे इनके शारीरिक बल-विक्रमकी परीक्षा हो सके। लोगोंको अपनी शारीरिक शक्तिसे प्रभावित करनेके लिए इस शिलाका उठाना मानो नारायण-पदकी एक अनिवार्य शर्त थी। तीसरे यह कि द्वारिकासे दक्षिण भारतको जीतकर कृष्ण कोटिशिला उठाने गये अर्थात् कोटिशिलाका मार्ग दक्षिण भारतसे सीधा था। इसी प्रकार पद्मपुराणमें लक्ष्मण द्वारा कोटिशिलाको उठानेका वर्णन मिलता है। अनेक मुनिजन इस शिलापर तपस्या करके मोक्ष पधारे हैं, अतः इस शिलाको पद्मपुराणमें निर्वाण शिला कहा है और सिद्धशिला भी। वस्तुतः कोटिशिला कोई नाम नहीं है। करोड़ों मुनि जिस शिलासे मुक्त हुए हैं, उस शिलाको ही कोटिशिला कहा जाने लगा है। ___ 'विविध तीर्थकल्प' में किन्हीं पूर्वाचार्योंकी कुछ गाथाएँ कोटिशिलाके सम्बन्धमें उद्धृत की हैं । उनके अनुसार कोटिशिला दशार्ण पर्वतके समीप थी। वहाँसे छह तीर्थंकरोंके तीर्थमें अनेक कोटि मुनि मुक्त हुए थे। शान्तिनाथ भगवान्के प्रथम गणधर चक्रायुध अनेक साधुओंके साथ वहाँसे मुक्त हुए तथा भगवान्के तीर्थमें संख्यात कोटि मुनि मुक्त हुए। कुन्थुनाथ तीर्थंकरके तीर्थमें संख्यात १. हरिवंश पुराण, सर्ग ५३, श्लोक ३९-४० ।
SR No.090097
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1975
Total Pages370
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size18 MB
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